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महापुराणम्
शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चैर्भरताधिपः स्वसमय संस्थापयन् तान् द्विजान्
सम्प्रोवाच कृती सतां बहुमता गर्भान्वयोत्थाः क्रियाः। गर्भाद्याः परिनिर्व तिप्रगमनप्रान्तास्त्रिपञ्चाशतं
प्रारभेऽथ पुनः प्रवक्तुमुचिता दीक्षान्वयाख्याः क्रियाः ॥३१२॥ यस्त्वताः द्विजसत्तमैरभिमता गर्भादिकाः सत्क्रियाः
श्रुत्वा सम्यगधीत्यभावितमतिजैनेश्वर दर्शने । सामग्रीमुचितां स्वतश्च परतः सम्पादयन्नाचरेद्
__ भव्यात्मा स समग्रधोस्त्रिजगति चूडामणित्वं भजेत् ॥३१३॥
इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे द्विजोत्पत्तौ
गर्भान्वयक्रियावर्णनं नाम अष्टत्रिंशत्तमं पर्व ।
हैं उनका आगेके पर्वमें निरूपण करेंगे ॥३११॥ इस प्रकार पुण्यवान भरत महाराजने उन द्विजोंको अपने धर्ममें स्थापित करते हुए गर्भसे लेकर निर्वाणगमन पर्यन्तकी तिरेपन गर्भान्वय क्रियाएं कहीं और उनके बाद कहने योग्य जो दीक्षान्वय क्रियाएं थीं उनका कहना प्रारम्भ किया ॥३१२॥ उत्तम उत्तम द्विजोंको माननीय इन गर्भाधानादि समीचीन क्रियाओंको सुनकर तथा अच्छी तरह पढ़कर जो जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनमें अपनी बुद्धि लगाता है और योग्य सामग्री प्राप्त कर दूसरोंसे आचरण कराता हुआ स्वयं भी इनका आचरण करता है वह भव्य पुरुष पूर्ण ज्ञानी होकर तीनों लोकोंक चूडामणिपनको प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर तीनों लोकोंके अग्रभागपर विराजमान होता है ॥३१३॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें द्विजोंकी उत्पत्ति तथा गर्भान्वय क्रियाओंका वर्णन
करनेवाला अड़तीसवां पर्व समाप्त हुआ
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