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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
स्पृशपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगतैः । देवत्वमात्मसात्कुर्याद् इहैवाभ्यचतैर्गुणैः ॥ १०४॥ नाणिमा महिमेवास्य गरिमेव न लाघवन् । 'प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चेति तद्गुणाः ॥ १०५ ॥ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देवसाद्भवम् । बिभुल्लोकातिगं धाम मयामेष महीयते ॥ १०६॥ धराचरितः सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन् सम्भावयत्यसौ ॥१०७॥ अथ जातिमदावेशात् कश्चिदेनं द्विजब्रुवः । ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥१०८॥ त्वामुष्यायणः " किन किन्ते ऽम्बाऽमुष्य पुत्रिका । 'येनं वमन्नसो' भूत्वा यास्यसत्कृत्य मद्विधान् ॥१०६ ॥ जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः । तथापि देवतात्मानम् आत्मानं मन्यते भवान् ॥११०॥ देवतातिथिपित्रग्निकार्येष्वप्रयतो भवान् । गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ॥१११॥ दीक्षां जैनीं प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव । यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२॥ इत्युपारूढसंरम्भम् उपालब्धः १ स केनचित् । ददात्युत्तरमित्यस्मं वचोभिर्युक्तिपेशलैः ४ ॥११३॥ श्रूयतां भो द्विजम्मन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसम्भवः १५ । जिनो "जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मलः ॥ ११४ ॥
है, जो वेद और वेदाङ्गके विस्तारको स्वयं पढ़ता है तथा दूसरोंको भी पढ़ाता है, जो यद्यपि पृथिवीका स्पर्श करता है तथापि पृथिवीसम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते हैं, जो अपने प्रशंसनीय गुणोंसे इसी पर्याय में देवपर्यायको प्राप्त होता है, जिसके अणिमा ऋद्धि अर्थात् छोटापन नहीं है किन्तु महिमा अर्थात् बड़प्पन है, जिसके गरिमाऋद्धि है परन्तु लघिमा नहीं हैं, जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओंके गुण विद्यमान हैं, उपर्युक्त गुणोंसे जिसकी महिमा बढ़ रही है, जो देवरूप हो रहा है और लोकको उल्लंघन करनेवाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्य पृथिवीपर पूजित होता है ॥१०३-१०६॥ सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्मसम्बन्धी आचरणोंसे वह अपने में प्रशंसनीय देवब्राह्मणपनेकी संभावना करता है अर्थात् उत्तम आचरणोंसे अपने आपको देवब्राह्मणके समान उत्तम बना देता है ॥ १०७॥
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यदि अपने को झूठमूठ ही द्विज माननेवाला कोई पुरुष अपनी जाति के अहंकार के आवेश से इस देवब्राह्मणसे कहे कि आप क्या आज ही देवपनेको प्राप्त हो गये हैं ? ॥ १०८ ॥ क्या तू अमुक पुरुषका पुत्र नहीं है ? और क्या तेरी माता अमुक पुरुषकी पुत्री नहीं है ? जिससे कि तू इस तरह नाक ऊंची कर मेरे ऐसे पुरुषोंका सत्कार किये बिना ही जाता है। ॥१०९॥ यद्यपि तेरी जाति वही है, कुल वही है और तू भी वही है जो कि सबेरे के समय था तथापि तू अपने आपको देवतारूप मानता है ॥ ११०॥ यद्यपि तू देवता, अतिथि, पितृगण और अग्निके कार्यों में निपुण है तथापि गुरु, द्विज और देवोंको प्रणाम करनेसे विमुख है ॥ १११ ॥ जैनी दीक्षा धारण करनेसे तुझे कौनसा अतिशय प्राप्त हो गया है ? क्योंकि तू अब भी मनुष्य ही है और पृथिवीको स्पर्श करता हुआ पैरोंसे ही चलता है ॥ ११२ ॥ इस प्रकार क्रोध धारणकर यदि कोई उलाहना दे तो उसके लिये युक्तिसे भरे हुए वचनोंसे इस प्रकार उत्तर दे ।। ११३ ॥ अपने आपको द्विज माननेवाले, तू मेरा दिव्य जन्म सुन, श्री जिनेन्द्रदेव ही मेरा पिता है और
१ रत्नत्रयादिगुणलाभः । २ प्रकर्षेरणासमन्तात् सकलाभिलषरणीयत्वम् । ३ देवाधीनम् । देवसाद्भवन् ल०, द०, इ० । देवसाद्भवेत् अ०, प०, स० । ४ देवत्वम् । ५ कुलीनः । 'प्रसिद्धपितुरुत्पन्न आमुष्यायरण उच्यते ।' ६ तव । ७ कुलीना पुत्री । ८ येन कारणेन । ६ उद्गतनासिकः । १० प्राग्भवः । ११ - ष्वप्राकृतो ल०, द० । १२ स्वीकृतक्रोधं यथा भवति तथा १३ दूषितः । १४ पटुभिः ।
१५ अस्माकं देवोत्पत्तिः ।
१६ पिता ।
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