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महापुराणम्
तत्रातिबालविद्याद्या कुलावधिरनन्तरम् । वर्णोत्तमत्वपात्रत्वे तथा सृष्ट्यधिकारिणा ॥ १७५ ॥ व्यवहारेशितान्या स्याद् श्रवध्यत्वमदण्डयता । मानार्हता प्रजासम्बन्धान्तरं चेत्यनुक्रमात् ॥ १७६ ॥ दशाधिकारि वास्तुनि स्वरुपासक सग्रहे । तानीमानि यथोद्देश सङ्क्षेपेण विवृण्महे ॥ १७७॥ बाल्यात्प्रभृति 'या विद्याशिक्षोद्योगाद् द्विजन्मनः । प्रोक्तातिबालविद्येति सा क्रिया द्विजसम्मता ॥१७८॥ तस्यामसत्यां महात्मा हेयादेयानभिज्ञकः । मिथ्याश्रुतिं प्रपद्येत द्विजन्मान्यैः प्रतारितः ॥ १७६ ॥ बाल्य एव ततोऽभ्यस्येद् द्विजन्मौपासिकीं श्रुतिम् । स तथा प्राप्तसंस्कारः स्वपरोत्तारको भवेत् ॥ १८०॥ कुलावधिः कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यंकुलतां भजेत् ॥ १८१ ॥ वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु सर्वेष्वाधिक्यमस्य वै । तेनायं श्लाध्यतामेति स्वपरोद्धारणक्षमः ॥ १८२ ॥ वर्णोत्तमत्वं यद्यस्य न स्यान्न स्यात्प्रकृष्टता । अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयेत्र परानपि ॥ १८३॥ ततोऽयं शुद्धिकामः सन् सेवेतान्यं कुलिङगिनन् । 'कुब्रह्म वा "ततस्तज्जान् दोषान् प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ १८४॥ प्रदानात्वमस्येष्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । गुणधिकोऽहि लोकेऽस्मिन् पूज्यः स्यात्लोकपूजितैः ॥ १६५॥ ततोगुणकृतां स्वस्मिन् पात्रतां द्रढयेद्विजः । तदभावे दिमान्यत्वाद् ह्रियतेऽस्य धनं नृपः ॥ १८६॥ अधिकार कहे हैं उन्हें यथाक्रमसे नामके अनुसार कहता हूँ ॥ १७४॥ उन दश अधिकारों में पहला अतिबाल विद्या, दूसरा कुलावधि, तीसरा वर्णोत्तमत्व, चौथा पात्रत्व, पाँचवाँ सृष्टयधिकारिता, छठवाँ व्यवहारेशिता, सातवाँ अवध्यत्व, आठवाँ अदण्डयता, नौवाँ मानार्हता और दशवाँ प्रजा सम्बन्धान्तर है । उपासकसंग्रहमें अनुक्रमसे ये दश अधिकारवस्तुएँ बतलाई गई हैं । उन्हीं अधिकार वस्तुओं का उनके नामके अनुसार यहाँ संक्षेपसे कुछ विवरण करता हूँ । ।।१७५-१७७।। द्विजोंको जो बाल्य अवस्थासे ही लेकर विद्या सिखलानेका उद्योग किया जाता है उसे अतिबालविद्या कहते हैं, यह विद्या द्विजोंको अत्यन्त इष्ट है ॥ १७८ ॥ इस अतिबाल विद्याके अभावमें द्विज मूर्ख रह जाता है उसे हेय उपादेयका ज्ञान नहीं हो पाता और वह अपने को झूठमूठ द्विज माननेवाले पुरुषोंके द्वारा ठगाया जाकर मिथ्या शास्त्रके अध्ययन में लग जाता है ।। १७९ ।। इसलिये द्विजोंको उचित है कि वे बाल्य अवस्थामें ही श्रावकाचारके शास्त्रोंका अभ्यास करें क्योंकि उपासकाचारके शास्त्रोंके द्वारा जिसे अच्छे संस्कार प्राप्त हो जाते हैं वह निज और परको तारनेवाला हो जाता है ।। १८० ।। अपने कुलके आचारकी रक्षा करना -द्विजोंकी कुलावधि क्रिया कहलाती है । कुलके आचारकी रक्षा न होनेपर पुरुषकी समस्त क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता है ।। १८१|| समस्त वर्णों में श्रेष्ठ होना ही इसकी वर्णोत्तम क्रिया है, इस वर्णोत्तम क्रियासे ही यह प्रशंसाको प्राप्त होता है और निज तथा परका उद्धार करने में समर्थ होता है ।। १८२ ॥ यदि इसके वर्णोत्तम क्रिया नहीं है अर्थात् इसका वर्ण उत्तम नहीं है तो इसके उत्कृष्टता नहीं हो सकती और जो उत्कृष्ट नहीं है वह न तो अपने आपको शुद्ध कर सकता है और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकता है || १८३ || जो स्वयं उत्कृष्ट नहीं है ऐसे द्विजको अपनी शुद्धिकी इच्छासे अन्य कुलिङगियों अथवा कुब्रह्मकी सेवा करनी पड़ती है और ऐसी दशा में वह निःसन्देह उन लोगों में उत्पन्न हुए दोषों को प्राप्त होता है । भावार्थ- सदा ऐसे ही कार्य करना चाहिये जिससे वर्णकी उत्तमता में बाधा न आवे || १८४|| गुणोंका गौरव होनेसे दान देने के योग्य पात्रता भी इन्हीं द्विजों में होती है क्योंकि जो गुणोंसे अधिक होता है वह संसारमें सब लोगों के द्वारा पूजित होनेवाले लोगों के द्वारा भी पूजा जाता है ॥ १८५ ॥ । इसलिये द्विजों को चाहिये कि वे अपने आपमें गुणों
१ यो विद्याशिक्षोद्योगो द्विजन्मनः द०, ल०, अ०, स०, इ० | २ द्विजम्मन्यैः द० । ३ व्रजेत् द०, ल० । ४ कुत्सितब्रह्माणम् । ५ कुलिंगकुब्रह्मसेवनात् ।
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