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महापुराणम्
जिनानुस्मरणे तस्य समाधानमुपेयुषः । शैथिल्याद् गात्रबन्धस्य 'लस्तान्याभरणान्यहो ॥११३॥ तथापि बहुचिन्तस्य धर्मचिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मो हि चिन्तिते सर्व चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ॥ ११४ ॥ तस्याखिलाः क्रियारम्भा धर्मचिन्तापुरस्सराः । जाता जातमहोद के पुण्यपाकोत्य सम्पदः ॥११५॥ प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् सन्ध्यारागारुणा दिशः । स मेनेऽर्हत्पदाम्भोजरागणे वानुरञ्जिताः ॥ ११६॥ प्रातरुद्यन्तनद्धूतनैशान्धतमसं' रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिबिम्बममंस्त सः ॥ ११७॥ प्रभातमरुतोद्धूतप्रबुद्ध कमलाकरात् । हृदि सोऽधाज्जिनालापकलापानिव शीतलान् ॥ ११८ ॥ धार्मिकस्यास्य कामार्थचिन्ताऽभूदानुषङ्गिकी" । तात्पर्य त्वभवद्धर्मे कृत्स्नश्रेयोऽनुबन्धिनि ॥ ११६ ॥ प्रातरुत्थाय धर्मस्यैः " कृतधर्मानु चिन्तनः । ततोऽकामसम्पत्ति सहामात्यैन्यं रूपयत् ' ॥ १२० ॥ तत्पादुत्थितमात्रोऽसौ सम्पूज्य गुरुदैवतम् । कृतमङगलनेपथ्यो' 'धर्मासनमधिष्ठितः ॥ १२१ ॥ प्रजानां सदसद्वृत्तचिन्तनैः क्षणमासितः । तत आयुक्तकान् स्वेषु नियोगेष्वन्वशाद् विभुः ॥ १२२ ॥ नृपासनमयाध्यास्य महादर्शन" मध्यगः । नृपान् सम्भावयामास सेवावसरकाङक्षिणः ॥ १२३ ॥ कांश्चिदालोकनैः कांश्चित्स्मितैराभाषणैः परान् । कांश्चित्समानदानाद्यैः तर्पयामास पार्थिवान् ॥ १२४॥
हुए जिनमन्दिरमें ही रहते थे और उस समय ठीक मुनियोंका आचरण धारण करते थे ।।११२ ॥ जिनेन्द्रदेवका स्मरण करने में वे समाधानको प्राप्त हो रहे थे उनका चित्त स्थिर हो रहा था और आश्चर्य है कि शरीरके बन्धन शिथिल होनेसे उनके आभूषण भी निकल पड़े थे ।। ११३।। यद्यपि उन्हें बहुत पदार्थों की चिन्ता करनी पड़ती थी तथापि उनके धर्मकी चिन्ता अत्यन्त दृढ़
सो ठीक ही है क्योंकि धर्मकी चिन्ता करनेपर चिन्ता करने योग्य समस्त पदार्थोंका चिन्तवन अपने आप हो जाता हैं ।। ११४ ।। बड़े भारी फल देनेवाले पुण्यकर्मके उदयसे जिन्हें अनेक संपदाएं प्राप्त हुई हैं ऐसे भरतकी समस्त क्रियाओं का प्रारम्भ धर्मके चिन्तवनपूर्वक ही होता था अर्थात् महाराज भरत समस्त कार्योंके प्रारम्भमें धर्मका चिन्तवन करते थे ॥ ११५ ॥ वे प्रातःकाल आंख खोलकर जब समस्त दिशाओंको सबेरेकी लालिमासे लाल लाल देखते थे तब ऐसा मानते थे मानों ये दिशाएं जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों की लालिमासे ही लाल लाल हो गई हैं ॥ ११६ ॥ जिसने रात्रिका गाढ़ अन्धकार नष्ट कर दिया है ऐसे सूर्यको प्रातःकालके समय उदय होता हुआ देखकर वे ऐसा समझकर उठते थे मानो यह भगवान्के केवलज्ञानका प्रतिविम्ब ही हो ॥११७॥ प्रातःकालकी वायुके चलनेसे खिले हुए कमलोंके समूहको वे अपने हृदयमें जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिके समूह के समान शीतल समझते थे ।। ११८ ।। वे बहुत ही धर्मात्मा थे, उनके काम और अर्थकी चिन्ता गौण रहती थी तथा उनका मुख्य तात्पर्य सब प्रकारका कल्याण करनेवाले धर्म में ही रहता था ॥ ११९ ।। वे सबेरे उठकर पहले धर्मात्मा पुरुषोंके साथ धर्मका चिन्तवन करते थे और फिर मंत्रियोंके साथ अर्थ तथा कामरूप संपदाओंका विचार करते थे ॥१२०॥ वे शय्यासे उठते ही देव और गुरुओंकी पूजा करते थे और फिर माङ्गलिक वेष धारणकर धर्मासनपर आरूढ़ होते थे ।। १२१ ॥ | वहां प्रजाके सदाचार और असदाचारका विचार करते हुए वे क्षणभर ठहरते थे तदनन्तर अधिकारियोंको अपने अपने कामपर नियुक्त करते थे अर्थात् अपना अपना कार्य करनेकी आज्ञा देते थे ॥ १२२ ॥ इसके बाद सभाभवनके बीच में जाकर राजसिंहासनपर विराजमान होते तथा सेवाके लिये अवसर चाहनेवाले राजाओं का सन्मान करते थे ।। १२३ ।। वे कितने ही राजाओंको दर्शनसे, कितनोंहीको मुसकानसे,
१ गलितानि । २ निशासम्बन्धि | ३ विकसित । ४ अमुख्या । ५ धर्मस्थैः सह । ६ विचारमकरोत् । ७ मङ्गलालङ्कारः । ८ आसनमण्डलविशेषम् । ६ तत्परान् । १० सभादर्शन - अ०, स० । प०, ल०, म० । महद्दर्शनं येषां ते महादर्शनास्तेषां मध्यगः । सभ्यजनमध्यवर्ती सन्नित्यर्थः ।
सभासदन
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