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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
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एष धर्मप्रियः सम्राट् धर्मस्थानभिनन्दति । मत्वेति निखिलो लोकः तदा धर्मे रतिं व्यधात् ॥ १०० ॥ स धर्मविजयी सम्राट् सद्वृत्तः शुचिरूजितः । ' प्रकृतिष्वनुरक्तासु व्यधाद् धर्मक्रियादरम् ॥१०१॥ भरतोऽभिरतो' धर्मे वयं तदनुजीविनः । इति तद्वृत्तमन्वीय मौलिबद्धा महीक्षितः ॥१०२॥ सोऽयं साबित कामार्थश्चक्री चक्रानुभावतः । चरितार्थद्वये तस्मिन् भेजे धर्मैकतानताम् ॥१०३॥ (दानं पूजां च शीलं च दिने पर्व पोषितम् । धर्मश्चतुर्विधः सोऽयम् ग्राम्नातो' गृहमेधिनाम् ॥ १०४ ॥ ददौ दानमसौ सद्भ्यो मुनिभ्यो विहितादरम् । समेतो नवभिः पुण्यैः गुणः सप्तभिरन्वितः ॥ १०५ ॥ सोऽदाद् विशुद्धमाहारं यथायोगं च भेषजम् । प्राणिभ्योऽभयदानं च दानस्यैतावती गतिः ॥ १०६॥ जिनेषु भक्तिमातन्वन तत्पूजायां श्रुति दधौ । पूज्यानां पूजनाल्लोके पूज्यत्वमिति भावयन् ॥१०७॥ चैत्य चैत्यालयादीनां निर्मार्पणपुरस्सरम् । स चक्रे परमामिज्यां कल्पवृक्षपृथुप्रथाम् ॥१०८॥ शीलानु पालने यत्नो मनस्यस्य विभोरभूत् । शीलं हि रक्षितं यत्नाद् आत्मानमनुरक्षति ॥ १०६ ॥ व्रतानुपालनं शीलव्रतायुक्तान्यगारिणाम् । स्थूलहिंसाविरत्यादिलक्षणानि च लक्षणः ॥ ११०॥ 'सभावनानि तान्येव यथायोगं प्रपालयन् । प्रजानां पालकः सोऽभूद् धौरेयो गृहमेधिनाम् ॥१११॥ पर्वोपवासमास्थाय जिनागारे समाहितः । कुर्वन सामयिकं सोऽधान्मुनिवृत्तं च तत्क्षणम् " ॥ ११२ ॥ धर्मप्रिय हो गई थी ।। ९९ ।। यह सम्राट् स्वयं धर्मप्रिय है और धर्मात्मा लोगों का सन्मान करता है यही मानकर उस समय लोग धर्म में प्रीति करने लगे थे ॥ १००॥ वह चक्रवर्ती धर्मविजयी था, सदाचारी था, पवित्र था और बलिष्ठ था इसलिये ही वह अपनेपर प्रेम रखनेवाली प्रजामें धार्मिक क्रियाओं का आदर करता था अर्थात् प्रजाको धार्मिक क्रियाएं करनेका उपदेश देता था ॥ १०१ ॥ 'भरत धर्म में तत्पर है और हम लोग उसके सेवक हैं' यही समझकर मुकुटबद्ध राजा उनके आचरणका अनुसरण करते थे । भावार्थ - अपने राजाको धर्मात्मा जानकर आश्रित राजा भी धर्मात्मा बन गये थे ।। १०२ ।। चत्रके प्रभाव से अर्थ और काम दोनों ही जिनके स्वाधीन हो रहे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरत अर्थ और कामकी सफलता होनेपर केवल धर्ममें ही एकाग्रता . को प्राप्त हो रहे थे ।। १०३ || दान देना, पूजा करना, शील पालन करना और पर्वके दिन उपवास करना यह गृहस्थोंका चार प्रकारका धर्म माना गया है ।। १०४ || नव प्रकारके पुण्य और सात गुणोंसे सहित भरत उत्तम मुनियोंके लिये बड़े आदर के साथ दान देते थे ॥ १०५ ॥ वे विशुद्ध आहार, योग्यतानुसार औषधि और समस्त प्राणियोंके लिये अभय दान देते थे सो ठीक ही है क्योंकि दानकी यही तीन गति हैं ।। १०६ ।। संसारमें पूज्य पुरुषोंकी पूजा करने से पूज्यपना स्वयं प्राप्त हो जाता है ऐसा विचार करते हुए महाराज भरत जिनेन्द्रदेवमें अपनी भक्ति बढ़ाते हुए उनकी पूजा करने में बहुत ही संतोष धारण करते थे ॥ १०७॥ उन्होंने अनेक जिनविम्बं और जिनमन्दिरोंकी रचना कराकर कल्पवृक्ष नामका बहुत बड़ा यज्ञ ( पूजन ) किया था ॥१०८॥ उनके मनमें शीलकी रक्षा करनेका प्रयत्न सदा विद्यमान रहता था सो ठीक ही है क्योंकि प्रयत्नपूर्वक रक्षा किया हुआ शील आत्माकी रक्षा करता है ।। १०९ ।। व्रतोंका पालन करना शील कहलाता है और स्थूलहिंसाका त्याग करना (अहिंसाणु व्रत ) आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं वे लक्षणोंके साथ पहले कहे जा चुके हैं ॥। ११० ।। उन व्रतोंको भावनाओं सहित यथायोग्य रीतिसे पालन करते हुए प्रजापालक महाराज भरत गृहस्थों में मुख्य गिने जाते थे ।। १११ ।। वे पर्वके दिन उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर चित्तको स्थिर कर सामायिक करते १ प्रजापरिवारेषु । २ भरतो निरतो ल०, म० । ईशनोऽभिरतो अ०, स० । ३ अनुगच्छन्ति स्म । ४ नृपाः । ५ स्वाधीन -ल०, म०, स०, अ०, प० । ६ धर्मे अनन्यवर्तिताम् । 'एकतान अनन्यवृत्तिः' इत्यभिधानात् । ७ उपवासः । ८ कथितः । ६ मैत्रीप्रमोदादिभावनासहितानि । १० प्रतिज्ञां कृत्वा । - माध्याय ल०, प० । ११ सामायिककालपर्यन्तम् ।
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