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महापुराणम्
लम्बिताश्च पुरद्वारि ताश्चतुविशतिप्रमाः । राजवेश्ममहाद्वारगोपुरेष्वप्यनुक्रमात् ॥८८॥ या किल विनिर्याति प्रविशत्यप्ययं प्रभुः । तदा मौल्यग्रलग्नाभिः श्रस्य स्यादर्हतां स्मृतिः ॥८॥ स्मृत्वा ततोऽर्हदर्चानां भक्त्या कृत्वाभिनन्दनाम् । पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविशेश्च स पुण्यधीः ॥ ६०॥ रेजः सूत्रेषु सम्प्रोक्ता घण्टास्ताः परमेष्ठिनाम् । सदर्थघटिताष्टीका ग्रन्थानामिव पेशलाः ॥ ६१ ॥ लोकचूडामणेस्तस्य मौलिलग्ना विरेजिरे । पादच्छाया जिनस्येव घण्टास्ता लोकसम्मताः ॥६२॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिता । दृष्टवार्हद्वन्दना हेतोः लोकोऽप्यासीत्तदादरः ॥६३॥ पोरंजनंरतः स्वषु वेश्मतोरणदामसु । यथाविभवमाबद्धा घण्टास्ता सपरिच्छदाः ॥६४॥ श्रादिराजकृतां सृष्टि प्रजास्तां बहुमेनिरे । प्रत्यगारं यतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिकाः ॥६५॥ वन्दनार्थं कृता माला यतस्ता भरतेशिना । ततो वन्दनमालाख्यां प्राप्य रूढिं गताः क्षितौ ॥६६॥ धर्मशीले महीपाले यान्ति तच्छीलतां प्रजाः । श्रताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजाः ॥६७॥ तदा कालानुभावेन प्रायो धर्मप्रिया नराः । साधीयः साधुवृत्तेऽस्मिन् स्वामिन्यासन् हिते रताः ॥ ६८ ॥ सुकालश्च सुराजा च समं सन्निहितं द्वयम् । ततो धर्मप्रिया जाताः प्रजास्तदनुरोधतः ॥६६॥
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मासे सजे हुए बहुतसे घंटे बनवायें तथा ऐसे ऐसे चौबीस घंटे बाहरके दरवाजेपर, राजभवन के महाद्वारपर और गोपुर दरवाजोंपर अनुक्रमसे रँगवा दिये ।। ८७-८८ ।। जब वे चक्रवर्ती उन दरवाजों से बाहर निकलते अथवा भीतर प्रवेश करते तब मुकुटके अग्रभागपर लगे हुए घंटाओंसे उन्हें चौबीस तीर्थ करोंका स्मरण हो आता था । तदनन्तर स्मरणकर उन देवकी प्रतिमाओंको वे नमस्कार करते थे इस प्रकार पुण्यरूप बुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत निकलते और प्रवेश करते समय अरहन्तदेवकी पूजा करते थे ।।८९-९० ।। सूत्र अर्थात् रस्सियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले वे परमेष्ठियों के घंटा ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो उत्तम उत्तम अर्थोंसे भरी हुई और सूत्र अर्थात् आगम वाक्योंसे सम्बन्ध रखने वाली ग्रन्थोंकी सुन्दर टीकाएं ही हों ||११|| महाराज भरत स्वयं तीनों लोकोंके चूड़ामणि थे उनके मस्तक पर लगे हुए वे लोकप्रिय घंटा ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी छाया ही हो ||१२|| निधियों के स्वामी भरतने अर्हन्तदेवकी वन्दनाके लिये जो घंटा रत्नोंके तोरणोंकी रचना में स्थापित किये थे उन्हें देखकर अन्य लोग भी उनका आदर करने लगे थे अर्थात् अपने अपने दरवाजेके तोरणोंकी रचना में घंटा लगवाने लगे थे । उसी समयसे नगरवासी लोगोंने भी अपने अपने घरकी तोरणमालाओं में अपने अपने वैभवके अनुसार जिनप्रतिमा आदि सामग्री से युक्त घंटा बाँधे थे ॥९३ - ९४ ।। उस समय प्रथमराजा भरतकी बनाई हुई इस सृष्टिको प्रजाके लोगोंने बहुत माना था, यही कारण है कि आज भी प्रत्येक घरपर बन्दन मालाएं दिखाई देती हैं ॥ ९५ ॥ | चूँकि भरतेश्वरने वे मालाएं अरहन्तदेवकी बन्दनाके लिये बनवाई थीं इसलिये ही वे वन्दनमाला नाम पाकर पृथिवी में प्रसिद्धिको प्राप्त हुई हैं ॥९६॥ यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा धर्मात्मा नहीं होता है। तो प्रजा भी धर्मात्मा नहीं होती है, यह नियम है कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है ।। ९७ ।। उस समय कालके प्रभावसे प्रायः सभी लोग धर्मप्रिय थे सो ठीक ही है क्योंकि सदाचारी भरत के राजा रहते हुए सब लोग अपना हित करनेमें लगे हुए थे || १८ || उस समय अच्छा राजा और अच्छी प्रजा दोनों ही एक साथ मिल गये थे इसलिये राजाके अनुरोधसे प्रजा
१ बहिर्द्वारि ल०, म०, द० । २ रत्नादिसम्यगर्थः । ३ तोरणमालासु । ४ जिनबिम्बादिपरिकरसहिताः । ५ धर्मशीलताम् । ६ अधर्मत्वम् । ७ अधर्मशीले सति ।
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