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महापुराणम्
कल्याणाङगस्त्वमेकान्ताद् देवताधिष्ठितश्च यत् । न मिथ्या तदिमे स्वप्नाः फलमेषां निबोध मे ॥६२॥ दृष्टाः स्वप्ने मृगाधीशा ये त्रयोविंशतिप्रमाः। निस्सपत्नां विहृत्यमा क्षमा क्ष्माभृत्कूटमाश्रिताः ॥६३॥ तत्फलं सन्मति मुक्त्वा शेषतीर्थकरोदये। दुर्नयानामनुभूतिख्यापनं लक्ष्यतां स्फुटम् ॥६४॥ पुनरकाकिनः सिंहपोतस्यान्वक् मृगेक्षणात् । भवेयुः सन्मतेस्तीर्थे सानुषङगाः कुलिङगिनः ॥६॥ करीन्द्रभारनिर्भुग्नपुष्टस्याश्वस्य वीक्षणात् । कृत्स्नान् तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधवः ॥६६॥ मूलोत्तरगुणेष्वात्तसङगराः केचनालसाः । भक्ष्यन्ते मूलतः केचित्तष यास्यन्ति मन्दताम् ॥६७॥ "निध्यानादजयूथस्य शुष्कपत्रोपयोगिनः। यान्त्यसवृत्ततां त्यक्तसदाचाराः पुरा नराः ॥६८॥ करीन्द्रकन्धरारूढशाखामगविलोकनात् । प्रादिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ आमा 'पास्यन्त्यकलोनकाः ॥६६॥ काकैरुलूकसम्बाधदर्शनाद्धर्मकाम्यया। मुक्त्वा जनान्मुनीनन्यमतस्थानन्वियुर्जनाः ॥७०॥ प्रनृत्यतां प्रभूतानां भूतानामीक्षणात् प्रजाः । भजेयुर्नामकर्माद्यः व्यन्तरान् देवतास्थया ॥७॥ शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात । प्रच्युत्यार्यनिवासात् स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु५ ॥७२॥ पांसुधूसररत्नौधनिध्यानाद्धिसत्तमाः। नैव प्रादुर्भविष्यन्ति मुनयः पञ्चमे युगे ॥७३॥
शनोऽचितस्य सत्कारैश्चरभाजनदर्शनात् । गुणवत्पात्रसत्कारमाप्स्यन्त्यवतिनो द्विजाः ॥७४॥ से उत्पन्न होनेवाले झूठ होते हैं और दैवसे उत्पन्न होनेवाले सच्चे होते हैं ॥६१॥ हे कल्याणरूप, चूँकि तू अवश्य ही देवताओंसे अधिष्ठित है इसलिये तेरे ये स्वप्न मिथ्या नहीं हैं। तू इनका फल मुझसे समझ ॥६२।। तूने जो स्वप्नमें इस पृथ्वीपर अकेले विहार कर पर्वतकी शिखरपर चढ़े हुए तेईस सिंह देखे हैं उसका स्पष्ट फल यही समझ कि श्रीमहावीर स्वामीको छोड़कर शेष तइस तीर्थङ्करोंके समयम दुष्ट नयोकी उत्पत्ति नहीं होगी। इस स्वप्नका फल यही बतलाता है ॥६३-६४॥ तदनन्तर दूसरे स्वप्नमें अकेले सिंहके बच्चे के पीछे चलते हुए हरिणोंका समह देखनेसे यह प्रकट होता है कि श्री महावीर स्वामीके तीर्थमें परिग्रहको धारण करनेवाले बहुतसे कुलिङ्गी हो जावेंगे ॥६५॥ बड़े हाथीके उठाने योग्य बोझसे जिसकी पीठ झुक गई है ऐसे घोड़ेके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचम कालके साधु तपश्चरणके समस्त गुणोंको धारण करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे ॥६६॥ कोई मूलगुण और उत्तरगुणोंके पालन करनेकी प्रतिज्ञा लेकर उनके पालन करने में आलसी हो जायँगे, कोई उन्हें मूलसे ही भंग कर देंगे और कोई उनमें मन्दता या उदासीनताको प्राप्त हो जायेंगे ॥६७॥ सूखे पत्ते खानेवाले बकरोंका समूह देखनेसे यह मालूम होता है कि आगामी कालमें मनुष्य सदाचारको छोड़कर दुराचारी हो जायँगे ॥६८॥ गजेन्द्र के कंधेपर चढ़ हुए वानरोंके देखनेसे जान पड़ता है कि आगे चलकर प्राचीन क्षत्रिय वंश नष्ट हो जायँगे और नीच कुलवाले पथ्वीका पालन करेंगे ॥६९।। कौवोंके द्वारा उलूकको त्रास दिया जाना देखनेसे प्रकट होता है कि मनुष्य धर्मकी इच्छासे जैनमनियोंको छोड़कर अन्य मतके साधुओंके समीप जायँगे ॥७०॥ नाचते हुए बहुतसे भूतोंके देखनेसे मालूम होता है कि प्रजाके लोग नामकर्म आदि कारणोंसे व्यन्तरोंको देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे ॥७१॥ जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है ऐसे तालाबके चारों ओर पानी भरा हआ देखनेसे प्रकट होता है कि धर्म आर्यखण्डसे हटकर प्रत्यन्तवासी-म्लेच्छ खण्डोंमें ही रह जायगा ॥७२॥ धूलिसे मलिन हुए रत्नोंकी राशिके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालमें ऋद्धिधारी उत्तम मनि नहीं होंगे ॥७३॥ आदर-सत्कारसे जिसकी पूजा की
१ यस्मात् कारणात् । २ जानीहि । ३ मम सकाशात् । ४-मास्थिताः ट० । ५ अनुगच्छत् । ६ सपरिग्रहाः । ७ दर्शनात् । ८ पालयिष्यन्ति । ६ भूरीणाम् । . १० देवबुद्ध्या। ११ म्लेच्छदेशेषु । 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेशः स्यात् ।'
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