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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
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त इमे कालपर्यन्ते विक्रियां प्राप्य दुर्दशः। धर्मद्र हो' भविष्यन्ति पापोपहतचेतनाः॥५०॥ सत्वोपघातनिरता ममांसाशनप्रियाः। प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधामिकाः ॥५१॥ अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः। चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यन्त्यमी बत ॥५२॥ पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । वत्र्ययुगे प्रवय॑न्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः ॥५३॥ द्विजातिसर्जनं तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत् । स्याद्दोषबीजमायत्यां कुपाखण्डप्रवर्तनात् ॥५४॥ इति कालान्तरे दोषबीजमप्येतदञ्जसा । नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनतिक्रमात् ॥५५॥ यथानमुपयुक्तं सत् क्वचित्कस्यापि दोषकृत । तथाऽप्यपरिहार्य तद् बुधैर्बहुगुणास्थया ॥५६॥ तथेदमपि मन्तव्यम अद्यत्वे गुणदत्तया । सामाशयवैषम्यात् पश्चाद् यद्यपि दोषकृत् ॥५७॥ इदमेवं गतं हन्त यच्च ते स्वप्नदर्शनम् । तदप्येष्यद् युगे धर्मस्थितिहासस्य सूचनम् ॥५८ ॥ ते च स्वप्ना द्विधाऽऽम्नाताः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः। समस्तु धातुभिः स्वस्था विषमरितरे मताः ॥५६॥ तथ्याः स्यः स्वस्य सन्दृष्टाः मिथ्यास्वप्ना विपयर्यात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम्॥६०॥ स्वप्नानां द्वैतमस्त्यन्यदोषदेवसमुद्भवम् । दोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्याः स्यवसम्भवाः ॥६१॥
तक विकारभावको प्रा त होकर धर्मके द्रोही बन जायँगे ॥५०॥ जो प्राणियोंकी हिंसा करने में तत्पर हैं तथा मधु और मांसका भोजन जिन्हें प्रिय है ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिसारूप धर्मकी घोषणा करेगे ॥५१॥ खेद है कि दुष्ट आशयवाले ये ब्राह्मण अहिंसारूप धर्मको दूषित कर वेदमें कहे हुए हिसारूप धर्मको पुष्ट करेंगे ॥५२॥ पापका समर्थन करनेवाले, शास्त्रको जानने वाले अथवा पापके चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले और प्राणियोंके मारनेमें सदा तत्पर रहनेवाले ये धुर्त ब्राह्मण आगामी युग अर्थात् पंचम कालमें समीचीन मार्गके विरोधी हो जावेंगे ।।५३।। इसलिये यह ब्राह्मणोंकी रचना यद्यपि आज दोष उत्पन्न करनेवाली नहीं है तथापि आगामी कालमें खोटे पाखण्ड मतोंकी प्रवृत्ति करनेसे दोषका बीजरूप है ॥५४॥ इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मगोंकी सृष्टि कालान्तरमें दोषका बीजरूप है तथापि धर्म सृष्टिका उल्लंघन न हो इसलिये इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ॥५५॥ जिस प्रकार खाया हुआ अन्न यद्यपि कहीं किसीको दोष उत्पन्न कर देता है तथापि अनेक गुणोंकी आस्थासे विद्वान् लोग उसे छोड़ नहीं सकते उसी प्रकार यद्यपि ये पुरुषोंके अभिप्रायोंकी विषमतासे आगामी कालमें दोष उत्पन्न करनेवाले हो जावेंगे तथापि इस समय इन्हें गुणवान् ही मानना चाहिये ॥५६-५७।। इस प्रकार यह तेरी ब्राह्मण रचनाका उत्तर तो हो चुका, अब तूने जो स्वप्न देखे हैं, खेद है, कि वे भी आगामी युग (पंचम काल) में धर्मकी स्थितिके हासको सूचित करनेवाले हैं ॥५८॥ वे स्वप्न दो प्रकारके माने गये हैं एक अपनी स्वस्थ अवस्था में दिखनेवाले और दूसरे अस्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले। जो धातुओंकी समानता रहते हुए दिखते हैं वे स्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं और जो धातुओंकी विषमता-न्यूनाधिकता रहते हुए दिखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं ॥५९॥ स्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले स्वप्न सत्य होते हैं और अस्वस्थ अवस्था में दिखनेवाले स्वप्न असत्य हुआ करते हैं इस प्रकार स्वप्नोंके फलका विचार करने में यह जगत्प्रसिद्ध बात है ऐसा तू समझ ॥६०॥ स्वप्नोंके और भी दो भेद है एक दोषसे उत्पन्न होनेवाले और दूसरे देवसे उत्पन्न होनेवाले । उनमें दोषोंके प्रकोप
१ धर्मघातिनः । २ चोदनालक्षणम्। ३ भावि । ४ प्रतिकूले। ५ सृष्टिः । ६ उत्तरकाले। "उत्तरः काल आयतिः' इत्यभिधानात् । ७ भविष्ययुगे । ८ विचारणम।
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