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महापुराणम्
शुष्कमध्यं तडागं च पर्यन्तप्रचुरोदकम् । पांशुधूसरितो' रत्नराशिः श्वार्थ माहितः ॥३८॥ तारुण्यशाली ॠषभः शीतांशुः परिवेषयुक् । मिथोऽङ्गीकृतसाङ्गयौ पुङ्गवौ सङगलच्छियौ ॥३६॥ रविराशावधू रत्नवतं सोऽब्दै स्तिरोहितः । संशुष्कस्तरुरच्छायो जीर्णपर्णसमुच्चयः ॥४०॥ षोडशैतेऽद्य यामिन्यां दुष्टाः स्वप्ना विदां वर । फलविप्रतिपत्त मे तद्गतां त्वमपाकुरु ॥४१॥ इति तत्फलविज्ञाननिपुणोऽप्यववित्विषा । सभाजनप्रबोधार्थ पप्रच्छ निधिराट् जिनम् ॥४२॥ "तत्प्रश्नावसितावित्थं व्याचष्टे स्म जगद्गुरुः । वचनामृतसं सेकंः प्रीणयन्निखिलं सदः ॥ ४३ ॥ भगवद्दिव्यवागर्थ शुश्रूषावहितं तदा । ध्यानोपगमिवाभू तत्सदश्चित्रगतं नु वा ॥४४॥ साधु वत्स कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनम् । किन्तु दोषानुषङगोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यताम् ॥४५॥ श्रायुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृत 'युगस्थितिः ॥ ४६ ॥ ततः कलियुगेऽभ्य में जातिवादावलेपतः । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् ॥४७॥ मी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । "पुरा बुरागमैर्लोकं मोहयन्ति" धनाशया ॥४८॥ सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामबोद्धताः । जनान् प्रतारयिष्यन्ति" स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः ॥४६॥
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हुए वानर, (६) कौआ आदि पक्षियोंके द्वारा उपद्रव किये हुए उलूक, (७) आनन्द करते हुए भूत, (८) जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है और किनारोंपर खूब पानी भरा हुआ है ऐसा तालाब, (९) धूलिसे धूसरित रत्नोंकी राशि, (१०) जिसकी पूजा की जा रही है ऐसा नैवेद्यको खानेवाला कुत्ता, (११) जवान बैल, (१२) मण्डलसे युक्त चन्द्रमा, (१३) जो परस्परमें मिल रहे हैं और जिनकी शोभा नष्ट हो रही है ऐसे दो बैल, (१४) जो दिशारूपी स्त्रीरत्नोंके से बने हुए आभूषण के समान है तथा जो मेघोंसे आच्छादित हो रहा है ऐसा सूर्य, (१५) छायारहित सूखा वृक्ष और (१६) पुराने पत्तोंका समूह। हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, आज मैंने रात्रिके समय ये सोलह स्वप्न देखे हैं । हे नाथ, इनके फलके विषय में जो मुझे संदेह है, उसे दूर कर दीजिये || ३६-४१ ।। यद्यपि निधियोंके अधिपति महाराज भरत अपने अवधिज्ञानके द्वारा उन स्वप्नोंका फल जानने में निपुण थे तथापि सभाके लोगों को समझानेके लिये उन्होंने भगवान् से इस प्रकार पूछा था ॥ ४२ ॥ भरतका प्रश्न समाप्त होनेपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव अपने वचनरूपी अमृतके सिंचनसे समस्त सभाको संतुष्ट करते हुए इस प्रकार व्याख्यान करने लगे ।।४३।। उस समय भगवान्को दिव्य ध्वनिके अर्थको सुननेकी इच्छा से सावधान हुई वह सभा ऐसी जान पड़ती थी मानो ध्यानमें मग्न हो रही हो अथवा चित्रकी बनी हुई हो ॥ ४४ ॥ वे कहने लगे कि हे वत्स, तूने जो धर्मात्मा द्विजोंकी पूजा की है सो बहुत अच्छा किया है परन्तु इसमें कुछ दोष है उसे तू सुन || ४५ || हे आयुष्मन्, तूने जो गृहस्थोंकी रचना की है सो जबतक कृतयुग अर्थात् चतुर्थकालकी स्थिति रहेगी तबतक तो ये उचित आचारका पालन करते रहेंगे परन्तु जब कलियुग निकट आ जायगा तब ये जातिवाद के अभिमानसे सदाचारसे भ्रष्ट होकर समीचीन मोक्ष मार्गके विरोधी बन जायेंगे ||४६ || पंचम कालमें ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं, इस प्रकार जातिके मदसे युक्त होकर केवल धनकी आशासे खोटे खोटे शास्त्रोंके द्वारा लोगों को मोहित करते रहेंगे ||४७॥ सत्कारके लाभसे जिनका गर्व बढ़ रहा है और जो मिथ्या मदसे उद्धत हो रहे हैं ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वयं मिथ्या शास्त्रोंको बना बनाकर लोगोंको ठगा करेंगे ||४८ || जिनकी चेतना पापसे दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय
१ ईषत्पाण्डुरितः । २ चरुभुक् । ३ पूजितः । ४ सन्देहम् । ५ तस्य प्रश्नावसाने । ६ अवधानपरम् । ७ योगः । ८ चतुर्थकाल । ६ पञ्चमकाले । १० समीपे सति । ११ गर्वतः । १२ यास्यन्ति १४ पञ्चमकाले । १५ ' पुरायावतोडिति भविष्यत्यर्थे लड् । १६ वञ्चयिष्यन्ति ।
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। १३ प्रतिकूलताम् । १७ दुःशास्त्राणि ।
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