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एकचत्वारिंशत्तम पर्व
३१६ मेखलायां द्वितीयस्यां वरिवस्यन महाध्वजाम् । प्रापद् गन्धकुटी चको न्य'क्कृतत्रिजगच्छियम् ॥२५॥ देवदानवगन्धर्वसिद्धविद्याधरेडितम् । भगवन्तमथालोक्य प्राणमद् भक्तिनिर्भरः ॥२६॥ स्तुत्वा स्तुतिभिरीशानम् अभ्यर्य च यथाविधि । निषसाद' यथास्थानं धर्मामृतपिपासितः ॥२७॥ भक्त्या प्रणमतस्तस्य भगवत्पादपकजे। विशुद्धिपरिणामाङगमवधिज्ञानमुदबभौ ॥२८॥ पीत्वाऽयो धर्मपीयूष परां तृप्तिमवापिवान् । स्वमनोगतमित्युच्चः भगवन्तं व्यजिज्ञपत् ॥२६॥ मया सुष्टा द्विजन्मानः श्रावकाचारचुञ्चवः । त्वद्गीतोपासकाध्यायसूत्रमार्गानुगामिनः ॥३०॥ एकाद्यकादशान्तानि दत्तान्येभ्यो मया विभो। व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः ॥३॥ विश्वस्य धर्मसर्गस्य त्वयि साक्षात्प्रणेतरि । स्थिते मयातिबालिश्याद० इदमाचरितं विभो ॥३२॥ दोषः कोऽत्र गणः कोऽत्र किमेतत साम्प्रतं न वा। दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ ॥३३॥ अपि चाद्य मया स्वप्ना निशान्ते षोडशेक्षिताः । प्रायोऽनिष्टफलाश्चैते मया देवाभिलक्षिताः ॥३४॥ यथादृष्टमुपन्यस्ये१३ तानिमान परमेश्वरः । यथास्वं तत्फलान्यस्मत्प्रतीतिविषय नय ॥३५॥ सिंहो मृगेन्द्रपोतश्च तुरगः करिभारभृत्१५ । छागा वृक्षलतागुल्मशुष्कपत्रोपभोगिनः ॥३६॥
शाखामृगा द्विपस्कन्धम आरूढाः कौशिकाः खगैः। विहितोपद्रवा ध्वाङः८ प्रमथाश्च प्रमोदिनः॥३७॥ कुटीके पास जा पहुंचे ॥२५॥ वहांपर भक्तिसे भरे हुए भरतने देव, दानव, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधर आदिके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको देखकर उन्हें नमस्कार किया ।।२६॥ महाराज भरत उन भगवान्की अनेक स्तोत्रोंके द्वारा स्तुति कर और विधिपूर्वक पूजा कर धर्मरूप अमृतके पीनेकी इच्छा करते हुए योग्य स्थानपर जा बैठे ॥२७॥ भक्तिपूर्वक भगवान्के चरणकमलोंको प्रणाम करते हए भरतके परिणाम इतने अधिक विशुद्ध हो गये थे कि उनके उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥२८॥ तदनन्तर धर्मरूपी अमृतका पान कर वे बहुत ही संतुष्ट हुए और उच्च स्वरसे अपने हृदयका अभिप्राय भगवान्से इस प्रकार निवेदन करने लगे ॥२९।। कि हे भगवन्, मैंने आपके द्वारा कहे हुए उपासकाध्याय सूत्रके मार्गपर चलनेवाले तथा श्रावकाचारमें निपूण ब्राह्मण निर्माण किये हैं अर्थात ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की है ॥३०॥ हे विभो, मैंने इन्हें ग्यारह प्रतिमाओंके विभागसे व्रतोंके चिह्न स्वरूप एकसे लेकर ग्यारह तक यज्ञोपवीत दिये हैं ॥३१॥ हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टिको साक्षात् उत्पन्न करनेवाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने अपनी बड़ी मूर्खतासे यह काम किया है ॥३२॥ हे देव, इन ब्राह्मणों की रचनामें दोष क्या है ? गुण क्या है ? और इनकी यह रचना योग्य हुई अथवा नहीं ? इस प्रकार झूलाके समान झूलते हुए मेरे चित्तको किसी निश्चयमें स्थिर कीजिये अर्थात् गुण, दोष, योग्य अथवा अयोग्यका निश्चयकर मेरा मन स्थिर कीजिये ॥३३॥ इसके सिवाय हे देव, आज मैंने रात्रिके अन्तिमभागमें सोलह स्वप्न देखे हैं और मुझे ऐसा जान पड़ता है कि ये स्वप्न प्रायः अनिष्ट फल देनेवाले हैं ॥३४॥ हे परमेश्वर, वे स्वप्न मैंने जिस प्रकार देखे हैं उसी प्रकार उपस्थित करता हूं। उनका जैसा कुछ फल हो उसे मेरी प्रतीतिका विषय करा दीजिए ॥३५।। (१) सिंह, (२) सिंहका बच्चा, (३) हाथीके भारको धारण करनेवाला घोड़ा, (४) वृक्ष, लता और झाड़ियोंके सूखे पत्ते खानेवाले बकरे, (५) हाथीके स्कन्धपर बैठे
१ पूजयन् । २ अध:कृत। ३ नमस्करोति स्म। ४ निविष्टवान् । ५ पातुमिच्छामितः सन्। ६ कारणम् । ७ प्रतीताः । ८ -दशाङ्गानि ल०, म०। ६ सृष्टेः । १० मूर्खत्वेन । 'अज्ञे मूढयथाजातमूर्खवैधेयबालिशाः' इत्यमरः । ११ युक्तम्। १२ निश्चये। १३ विज्ञापयामि । १४ ज्ञानम् । १५ करिणो भारं बिभर्ति । १६ भक्षिणः। १७ उलूकाः । १८ काकैः। काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ क्षात्मघोषपरभृद्बलिभुगवायसा अपि ॥' इत्यभिधानात् । १६ भूताः ।
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