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चत्वारिंशत्तम पर्व
३११ शेषो विधिस्तु प्राक्त्रोक्तः तमन्नं समाचरेत् । यावत्सोऽधीतविद्यः सन् भजेत् सब्रह्मचारिताम् ॥१६४॥ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानुसंहृतः ॥१६॥ शिरोलिङगमरोलिडाग लिङगकट्यूरुसंश्रितम् । लिङगमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुर्विधम् ॥१६६॥) तत्त स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया। ययास्वं वर्तमानानां सदृष्टीनां द्विजन्मनाम् ॥१६७॥ कुतश्चित् कारणान् यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं यदा कुलम् ॥१६॥ तदास्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ। न निषिद्धं हि दीक्षाहें कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६॥ प्रदीक्षा] कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥१७०।) तेषां स्यादुचितं लिखगं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥१७शा स्यानिरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सर्गो ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ॥१७२॥ इति शुद्धतरां वृत्ति व्रतपूतामुपेयिवान् । यो द्विजस्तस्य सम्पूर्णो व्रतचर्याविधिः स्मृतः ॥१७३॥ दशाधिकारास्तस्योक्ताः सूत्रेणोपासिकेन हि । तान्यथाक्रममुद्देशमात्रेणानुप्रचक्ष्महे ॥१७४॥
अपनी जाति या कुटुम्बके लोगोंके घरमें प्रवेश कर भिक्षा माँगना चाहिये और उस भिक्षामें जो कुछ अर्थका लाभ हो उसे आदर सहित उपाध्यायके लिये सौंप देना चाहिये ॥१६३॥ बाकीकी सब विधि पहले कही जा चुकी है। उसे पूर्णरूपसे करना चाहिये। इसके सिवाय वह जबतक विद्या पढ़ता रहे तब तक उसे ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये ।।१६४।।
अथानन्तर जिसमें उपासकाध्ययनका संक्षेपसे संग्रह किया है ऐसी इसकी व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१६५।। जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है ऐसे बालकके लिये शिरका चिह्न (मण्डन), वक्षःस्थलका चिह्न-यज्ञोपवीत, कमरका चिन्ह-मुंजकी रस्सी और चिह्न-सफेद धोती ये चार प्रकारके चिह्न धारण करना चाहिये। इनका निर्णय पहले हो चुका है ॥१६६।। जो लोग अपनी योग्यताके अनुसार तलवार आदि शस्त्रोंके द्वारा, स्याही अर्थात् लेखनकलाके द्वारा, खेती और व्यापारके द्वारा अपनी आजीविका करते हैं ऐसे सदृष्टि द्विजों को वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये ॥१६७॥ जिसके कुलमें किसी कारणसे दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदिकी संमतिसे अपने कुलको शुद्ध कर लेता है तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करनेके योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र पौत्र आदि संततिके लिये यज्ञोपवीत धारण करने की योग्यताका कहीं निषेध नहीं है। भावार्थ-यदि दीक्षा धारण करने
ग्य कुलमें किसी कारणसे दोष लग जावे तो राजा आदिकी संमतिसे उसकी शुद्धि हो सकती है और उस कूलके पूरुषको यज्ञोपवीत भी दिया जा सकता है। न केवल उसी पुरुषको किन्तु उसके पुत्र पौत्र आदि संतानके लिये भी यज्ञोपवीत देनेका कहीं निषेध नहीं है ।।१६८-१६९।। जो दीक्षाके अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं तथा नाचना गाना आदि विद्या और शिल्पसे अपनी आजीविका करते हैं ऐसे पुरुषोंको यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंकी आज्ञा नहीं है ॥१७०॥ किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानसार व्रत धारण करें तो उनके योग्य यह चिह्न हो सकता है कि वे संन्यासमरण पर्यन्त एक धोती पहनें ॥१७१॥ यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषोंको माँसरहित भोजन करना चाहिये, अपनी विवाहिता कुलस्त्रीका सेवन करना चाहिये, अनारम्भी हिंसाका त्याग करना चाहिये और अभक्ष्य तथा अपेय पदार्थका परित्याग करना चाहिये ।।१७२॥ इस प्रकार जो द्विज व्रतोंसे पवित्र हुई अत्यन्त शुद्ध वृत्तिको धारण करता है उसके व्रतचर्याकी पूर्ण विधि समझनी चाहिमे ॥१७३॥ अब उन द्विजोंके लिये उपासकाध्ययन सूत्रमें जो दश
१संगृहीतः । २ जीवताम् । ३ कांक्षारहितभोजित्वम् । ४ आरम्भजनितवधं विहायान्यवधत्यागः ।
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