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चत्वारिंशत्तमं पर्व
३१३ रक्ष्यः सृष्टयधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिभिः। असदृष्टिकृतां सृष्टि परिहृत्य विदूरतः ॥१८७॥ अन्यया सृष्टिवादेन दुर्दष्टेन' कुदृष्टयः। लोकं नपांश्च सम्मोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ॥१८८॥ सृष्टयन्तरमतो दूरम् अपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् ॥१८६॥ तोर्यकृद्धिरियं सुष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितान्नुपानव सृष्टिहेतून प्रकाशयेत् ॥१०॥ अन्ययाऽन्यकृतां सृष्टि प्रपन्नाः स्पन पोत्तमाः। ततो नश्वर्य मेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्यु राहताः॥१९॥ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१६२॥ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिम् अभीप्सन्न्यक्कृतो भवेत् ॥१३॥ स्यादवध्याधिकारेऽपि स्थिरात्मा द्विजसत्तमः। ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वधमहति ॥१६४॥ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मगस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेऽपि द्वयात्मता मता ॥१६॥) (तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जन । धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्नाभिभूयते ॥१९६॥ तदभावे च वध्यत्वम अयमच्छति सर्वतः। एवं च सति धर्मस्य नश्यत् प्रामाण्यमहताम् ॥१७॥
के द्वारा की हुई पात्रताको दढ करें अर्थात् गुणी पात्र बनें क्योंकि पात्रताके अभावमें मान्यता नहीं रहती और मान्यताके न होनेसे राजा लोग भी धन हरण कर लेते हैं ।।१८६।। जिनकी सृष्टि उत्तम है ऐसे द्विजोंको मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा की हुई सृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अपनी सृष्टिके अधिकारोंकी रक्षा करनी चाहिये ॥१८७।। अन्यथा मिथ्यादृष्टि लोग अपने दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहित कर कुमार्गगामी बना देंगे ।।१८८। इसलिये नय और तत्त्वोंको जाननेवाले द्विजको चाहिये कि वह मिथ्यादृष्टियोंकी अन्यसृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अनादिक्षत्रियोंके द्वारा रची हुई धर्मसृष्टिकी ही प्रभावना करे ॥१८९।। तथा इस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे ऐसा कहे कि तीर्थङ्करोंके द्वारा रची हुई यह सृष्टि अनादिकालसे चली आई है। भावार्थ-यह धर्मसृष्टि तीर्थङ्करोंके द्वारा रची हुई है
और अनादि कालसे चली आ रही है इसलिये आप भी इसकी रक्षा कीजिये ॥१९०॥ यदि द्विज राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सष्टिको मानने लगेंगे जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा तथा अरहन्तके मतको माननेवाले लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे ॥१९१॥ परमागमका आश्रय लेनेवाले द्विजोंको जो प्रायश्चित्त आदि कार्यों में स्वतन्त्रता है उसे हो व्यवहारेशिता कहते हैं ।।१९२॥ व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शद्ध कर सकेगा और न दूसरेको ही शद्ध कर सकेगा तथा स्वय अशुद्ध होनेपर यदि दूसरेसे अपनी शुद्धि करना चाहे तो वह कभी कृती नहीं हो सकेगा ॥१९३॥ जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसा उत्तम द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता है अर्थात् अवध्य है क्योंकि ब्राह्मण गुणोंकी अधिकताके कारण किसी दूसरेके द्वारा वध करने योग्य नहीं होता ॥१९४।। सब प्राणियोंको नहीं मारना चाहिये और विशेषकर ब्राह्मणोंको नहीं मारना चाहिये। इस प्रकार गुणोंकी अधिकता और हीनतासे हिंसामें भी दो भेद माने गये हैं ॥१९५।। इसलिये यह धार्मिक जनोंमें अपनी अवध्यताको पुष्ट करे । यथार्थमें वह धर्मका ही माहात्म्य है कि जो इस धर्ममें स्थित रहकर किसी
[पाता ॥१९६॥ यदि वह अपनी अवध्यताको पूष्ट न करेगा तो सब लोगों से वध्य हो जावेगा अर्थात् सब लोग उसे मारने लगेंगे और ऐसा होनेपर अर्हन्तदेवके धर्मकी
१ असमीक्षितेन कुदष्टान्तेन बा। २ तां धर्मसृष्टि प्रकाशयेदित्यर्थः । ३ आत्मानमाश्रिता । अथवा पूर्व तां संश्रितां बोधयेत् तद्ववत्यर्थम् । ४-नकृतो ल०। -नकृती द० । ५ नृपादेः सकाशात्। ६ द्विरूपता (दुष्टनिग्रहशिष्टप्रतिपालनता)।
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