________________
२८२
महापुराणम्
मलिनाचरिता ह्येते 'कृष्णवर्गे द्विजब्रुवा: । जैनास्तु निर्मलाचाराः 'शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥ १३८ ॥ श्रुतिस्मृति पुरावृत्त' वृत्तमन्त्र क्रियाश्रिता । देवतालिङगकामान्तकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥१३६॥ ये विशुद्धतरां वृत्तिं तत्कृतां' समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोधव्याः शेषाः शुद्धेः बहिः कृता ॥ १४०॥ तच्छुद्धयशुद्धी बोधव्य न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायो दयार्द्रवृत्तित्वम् श्रन्यायः प्राणिमारणम् ॥ १४१ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । ' वर्णान्तःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥ १४२ ॥ स्यादाका' च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसङगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ॥१४३॥ इत्यत्र ब्रूमहे सत्यम् अल्पसावद्यसङ्गतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥ १४४ ॥ श्रपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानीं विवृण्महे ॥ १४५ ॥ तत्र पक्षो हि जनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मंत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृ ंहितम् ॥१४६॥ चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । श्रौषधाहारक्लृप्त्यं वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥ १४७ ॥ तत्राकामकृतेः शुद्धिः प्रायश्चित्तविधीयते । पश्चाच्चात्मालयं " सूनौ व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥ १४८ ॥
तो दुःखके साथ कहना पड़ेगा कि बेचारे धर्मात्मा लोग व्यर्थ ही नष्ट हुए || १३७॥ ये द्विज लोग मलिन आचारका पालन करते हैं और झूठमूठ ही अपनेको द्विज कहते हैं इसलिये विद्वान् लोग इन्हें कृष्णवर्ग अर्थात् पापियों के समूहमें गर्भित करते हैं और जैन लोग निर्मल आचारका पालन करते हैं इसलिये इन्हें शुक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानों के समूहमें शामिल करते हैं ॥ १३८ ॥ द्विज लोगों की शुद्धि श्रुति, स्मृति, पुराण, सदाचार, मन्त्र और क्रियाओंके आश्रित है तथा देवताओंके चिह्न धारण करने और कामका नाश करनेसे भी होती है ।। १३९ ।। जो श्रुत स्मृति आदिके द्वारा की हुई अत्यन्त विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं उन्हें शुक्लवर्ग अर्थात पुण्यवानों के समूहमें समझना चाहिये और जो इनसे शेष बचते हैं उन्हें शुद्धिसे बाहर समझना चाहिये अर्थात् वे महा अशुद्ध हैं ।। १४० ।। उनकी शुद्धि और अशुद्धि, न्याय और अन्यायरूप प्रवृत्तिसे जाननी चाहिये । दयासे कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियों का मारना अन्याय है ॥ १४१ ॥ इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्णों में उत्तम हैं । वे ही द्विज हैं । ये ब्राह्मण आदि वर्णोंके अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं और जगत्पूज्य हैं ।। १४२ ।।
अब यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो असि मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविकाके लिये छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ी सी हिंसाकी संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलाई गई है ।।१४३-१४४|| उनकी विशुद्धिके अङ्ग तीन हैं पक्ष, चर्या और साधन । अब मैं यहाँ इन्हीं तीनका वर्णन करता हूं || १४५ ॥ उन तीनोंमेंसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना जैनियोंका पक्ष कहलाता है ॥ १४६ ॥ किसी देवता के लिये, किसी मंत्रकी सिद्धिके लिये अथवा किसी औषधि या भोजन बनवानेके लिये मैं किसी जीवकी हिंसा नहीं करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ।।१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि १ पाप । २ पुण्य । ३ आगम | ४ धर्मसंहिता । ५ पुराण । ६ श्रुतिस्मृत्यादिकृताम् ७ जैन द्विजोत्तरयोः शुद्धयशुद्धिः । ८ वर्णमात्रवर्तिनः। शङ्का । १० 'हिंसादोषोनुसङ्गी स्याद्' इत्यत्र । ११ सत्यमित्यङ्गीकारे । १२ चेष्टिते । व्यापारे इत्यर्थः । १३ प्रमादजनिते दोषे । १४ - चात्मान्वयं
1
द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org