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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
२८१ ब्राह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः। ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् परमेष्ठी' जिनोत्तमः ॥१२७॥ स हपाविपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणब्रहणात् । परं ब्रह्म यदायत्तम् प्रामनन्ति मुनीश्वराः ॥१२॥ नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः। यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥१२६॥ दिव्यमूर्ते जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३०॥ पवन्तःपातिनो नेते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३१॥ वर्णोत्तमानिमान विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । सन्तुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयान् अक्लिष्टाचारभूषणान ॥१३२॥ 'क्लिष्टाचाराः परे नैव बाह्मणा द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वत् पाहत्य पशुधातिनः ॥१३३॥ सर्वमेधमयं धर्मम् अभ्युपेत्य पशुघ्नताम् । का नाम गतिरेषां स्यात् पापशास्त्रोपजीविनाम् ॥१३४॥ चोदनालक्षणं० धर्सम अधर्म प्रतिजानते। ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥१३५॥ पार्थिवैर्वण्डनीयाश्च लुण्टाकाः पापपण्डिताः। तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्नन्त्यघृणाः१३ पशून् ॥१३६॥ "पशुहत्यासमारम्भात् क्रव्यादेभ्योऽपि५ निष्कृपाः । यद्यच्छिति मुशन्त्येते हन्तवं धामिका हताः॥१३७॥
आगे फिर भी कुछ कहता हूं ।।१२६॥ जो ब्रह्माकी संतान हैं, उन्हें ब्राह्मण कहते हैं और स्वयंभ, भगवान, परमेष्ठी तथा जिनेन्द्रदेव ब्रह्मा कहलाते हैं। भावार्थ-जो जिनेन्द्र भगवान का उपदेश सुनकर उनकी शिष्य-परम्परामें प्रविष्ट हुए हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं ॥१२७।। श्रीजिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा हैं क्योंकि वे ही गुणोंको बढ़ानेवाले हैं और उत्कृष्ट ब्रह्म अर्थात् ज्ञान भी उन्हीं के अधीन है ऐसा मुनियोंके ईश्वर मानते हैं ॥१२८॥ जो मृगचर्म धारण करता है, जटा , डाढ़ी आदि चिह्नोंसे युक्त है तथा कामके वश गधा होकर जो ब्रह्मतेज अर्थात् ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता ॥१२९॥ इसलिये जिन्होंने दिव्य मूर्तिके धारक श्री जिनेन्द्रदेवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म प्राप्त किया है वे ही द्विज कहलाते हैं ॥१३०।। व्रत, मन्त्र तथा संस्कारों से जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ है ऐसे इन उत्तम द्विजोंको वर्णों के अन्तर्गत
हिये अर्थात ये वर्णोत्तम हैं।॥१३॥ जो क्षमा और शौच गणके धारण करने में सदा तत्पर हैं, संतुष्ट रहते हैं, जिन्हें विशेषता प्राप्त हुई है और निर्दोष आचरण ही जिनका आभूषण है ऐसे इन द्विजोंको सब वर्गों में उत्तम मानते हैं ॥१३२।। इनके सिवाय जो मलिन आचारके धारक हैं, अपनेको झूठमूठ द्विज मानते हैं, पापका आरम्भ करने में सदा तत्पर रहते हैं और हठपूर्वक पशुओंका घात करते हैं वे ब्राह्मण नहीं हो सकते ॥१३३॥ जो समस्त हिंसामय धर्म स्वीकार कर पशुओंका घात करते हैं ऐसे पापशास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन ब्राह्मणोंकी न जाने कौन सी गति होगी ? ॥१३४॥ जो अधर्म स्वरूप वेदमें कहे हुए प्रेरणात्मक धर्मको धर्म मानते हैं मैं उनके सिवाय इस पृथिवीपर और किसीको कर्म चाण्डाल नहीं देखता है अर्थात.वेदमें कहे हए धर्मको माननेवाले सबसे बढकर कर्म चाण्डाल हैं ।।१३५॥ जो निर्दय होकर पशुओंका घात करते हैं वे पापरूप कार्यों में पंडित हैं, लुटेरे हैं, और धर्मात्मा लोगोंसे बाहय हैं; ऐसे पुरुष राजाओंके द्वारा दण्डनीय होते हैं ॥१३६।। पशुओंकी हिंसा करनेके उद्योगसे जो राक्षसोंसे भी अधिक निर्दय हैं यदि ऐसे पुरुष ही उत्कृष्टताको प्राप्त होते हों तब
१ परमपदे स्थितः । २ कामाद् गर्दभाकारमुख इत्यर्थः । ३ अध्ययनसम्पत्तेः । ४ अकलुषात् । ५ वर्णमात्रवर्तिन इत्यर्थः । ६ दुष्ट । ७ हठात्, साक्षात् वा। ८ हिंसामयम् । ६ हिंसां कुर्वताम् । १० वेदोक्तलक्षणम् । ११ प्रतिज्ञां कुर्वते । १२ चौराः। १३ निःकृपा। १४ पशुहननप्रारम्भात् । १५ राक्षसेभ्यः । 'राक्षसः कोणपः क्रव्यात ऋव्यादोऽस्रप आशरः' इत्यभिधानात् । १६ उन्नतिम् ।
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