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चत्वारिंशत्तमं पर्व
३०५ अडगावडरगात्सम्भवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥११४॥ क्षीराज्यममृतं पूतं नाभावावय' युक्तिभिः' । घातिञ्जयो भवेत्यस्य' ह्रासयन्नाभिनालकम् ॥११॥ श्रीदेव्यो जात ते जात क्रियां कुर्वन्त्विति ब्रयन् । तत्तन चूर्णवासेन शनैरुद्वयं यत्नतः ॥११६॥ त्वं मन्दराभिषेकाहॊ भवेति स्नपयेत्ततः। गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत् ॥११७॥ नश्यात्कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य सनासिके । घृतमौषधसंसिद्धमाव पेन्मात्रया द्विजः ॥११८॥ ततो विश्वेश्वरास्तन्यभागी" भूया इतीरयन्५ । मातुस्तनभुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥११॥ प्राग्वर्णितमयानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥१२०॥ (जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ॥१२॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुन्धरापदं चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ॥१२२॥ चूणिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्ट सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा ।
मन्त्रेणानेन सम्मन्त्र्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३॥ उसके समस्त अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने समान होनेसे उसमें अपना संकल्पकर अर्थात् यह मैं ही हूँ ऐसा आरोपकर नीचे लिखे हुए सुभाषित पढ़े ॥११३॥ हे पुत्र, तू मेरे अङ्ग अङ्गसे उत्पन्न हुआ है और मेरे हृदयसे भी उत्पन्न हुआ है इसलिये तू पुत्र नामको धारण करनेवाला मेरा आत्मा ही है। तू सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह ॥११४॥ तदनन्तर दूध और घीरूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर डालकर 'घार्तिजयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर युक्तिसे उसकी नाभिका नाल काटना चाहिये ॥११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात, श्रीदेव्यः ते जातक्रियां' कुर्वन्तु अर्थात् हे पुत्र, श्री, ह्री आदि देवियाँ तेरी जन्मक्रियाका उत्सव करें यह कहते हुए धीरे धीरे यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरपर उबटन करे फिर 'त्वं मन्दराभिषेकाो भव' अर्थात् तू मेरु पर्वतपर अभिषेक करने योग्य हो यह मन्त्र पढ़कर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे और फिर 'चिरं जीव्याः' अर्थात् तू चिरकालतक जीवित रह इस प्रकार आशीर्वाद देकर उसपर अक्षत डाले ॥११६-११७॥ इसके अनन्तर द्विज, 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्'-अर्थात् तेरे समस्त कर्ममल नष्ट हो जावें यह मन्त्र पढ़ करउसके मुख और नाकमें, औषधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार छोड़े ॥११८।। तत्पश्चात् विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूयाः' अर्थात् तू तीर्थ करकी माताके स्तनका पान करने वाला हो ऐसा कहता हुआ माताके स्तनको मन्त्रितकर उसे बालकके मुहमें लगा दे ।।११९।। तदनन्तर जिस प्रकार पहले वर्णन कर चुके हैं उसी प्रकार प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उत्सव कर विधिपूर्वक जातकर्म अथवा जन्मकालकी क्रिया समाप्त करनी चाहिये ।।१२०।। उसके जरायु पटलको नाभिकी नालके साथ साथ किसी पवित्र जमीनको खोदकर मन्त्र पढ़ते हुए गाड़ देना चाहिये ।।१२१।। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है कि सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद, सर्वमाता पद और वसुन्धरा पदको दो दो बार कहकर अन्तमें स्वाहा शब्द कहना चाहिये। अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा (सम्यग्दृष्टि, सर्वकी माता पृथ्वी में यह समर्पण करता हूँ) इस मन्त्रसे मन्त्रितकर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकारके रत्नोंके नीचे गर्भका वह मल रख देना चाहिये और फिर कभी 'त्वत्पुत्रा इव
१ बहुसंवत्सरमित्यर्थः । २ क्षीराज्यरूपममतम् । ३ सिक्त्वा । ४ युक्तितः ल० । भक्तितः द० । ५ बालस्य । ६ ह्रस्वं कुर्यात् । छिन्द्यादित्यर्थः । ७ पुत्र । ८ जातकर्म । ६ परिमलचूर्णेन। १० जीव । ११ वक्त्रे। १२ आवर्जयेद्, क्षिपेद् वा। १३ किञ्चित् परिमाणेन । १४ जिनजननीस्तन्यपानभागी भव । १५ ब्रुवन् । १६ संयोजयेत् । १७ सम्प्रापयेत् । १८ जरायुपटलम् ।
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