________________
एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
२८५
माविष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो। पुराण रसम्मोहात् क्वचिच्च त्रितयी मता ॥१६॥ कर्शयन्मूत्तिमात्मीयां रसन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोधितिष्ठेद् दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः॥१७०॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसन्धाय तपस्येत् कृतलक्षणः ॥१७१॥ मलापयन् स्वारगसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादिसौन्दर्यम् अनिवार्यपरम्परम् ॥१७२॥ मनोमसाङगो पुत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः। प्रभोः प्रभां मुनिया॑यन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥१७३॥ स्पं मणिस्नेह वीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ॥१७४॥ त्वक्त्वाऽस्त्र वस्त्र शस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् । जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातकर२ जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ॥१७६॥ स्वं स्वाम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । तेवित्वा सेवनीयत्वम् एष्यत्येष जगज्जनः ॥१७७॥ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । संह विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥१७८॥ "स्वोपधानावनात्य योऽभूनिरुपणधिभुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रापितशिरस्तटः ॥१७॥
जाति होती है ॥१६८॥ इन चारोंकी कल्पना मूर्ति आदिमें कर लेनी चाहिये, अर्थात् जिस प्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिये। परन्तु पुराणोंको जाननेवाले आचार्य मोहरहित होनेसे किसी किसी जगह तीन ही भेदोंकी कल्पना करते हैं । भावार्थ -सिद्धोंमें स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिये तथा अन्य जीवोंके शरीरोंकी रक्षा करते हुए तपश्चरण करना चाहिये ।।१७०॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करनेवाला वह पुरुष अपने लक्षणोंको निर्देश करनेके अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेवके लक्षणोंका चिन्तवनकर तपश्चरण करे ।।१७१।। जिनकी परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्योकी इच्छा करता हुआ वह मुनि अपने शरीरके सौन्दर्यको मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे ॥१७२॥ जिसका शरीर मलिन हो गया है, जिसने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली प्रभा का त्याग कर दिया है और जो अर्हन्तदेवकी प्रभाका ध्यान करता है ऐसा साधु शीघ्र ही देदीप्यमान हो जाता है अर्थात् दिव्यप्रभा आदि प्रभाओंको प्राप्त करता है ॥१७३॥ जो मुनि अपने मणि और तेलके दीपक आदिका तेज छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह प्रभामण्डलसे उज्ज्वल हो उठता है ।।१७४॥ जो पहलेके अस्त्र, वस्त्र और शस्त्र आदि को छोड़कर अत्यन्त शान्त होता हुआ जिनेन्द्रभगवान्की आराधना करता है वह योगिराज धर्मचक्रका अधिपति होता है ॥१७५॥ जो मनि स्नान आदिका संस्कार छोडकर केवली जिनेन्द्रका आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिन्तवन करता है वह मेरुपर्वतके मस्तकपर उत्कृष्ट जन्माभिषेकको प्राप्त होता है ॥१७६॥ जो मुनि अपने इस लोक-सम्बन्धी स्वामीपनेको छोड़कर परमस्वामी श्रीजिनेन्द्रदेवकी सेवा करता है वह जगत्के जीवोंके द्वारा सेवनीय होता है अर्थात् जगत्के सब जीव उसकी सेवा करते हैं ।।१७७।। जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदोंका त्यागकर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासनपर आरूढ़ होकर तीर्थको प्रसिद्ध करनेवाला अर्थात् तीर्थकर होता है ।।१७८।। जो मुनि अपने तकिया आदिका अनादर कर परिग्रह
१ दिव्यमूर्तिविजयमूतिः परममूर्तिः स्वात्मोत्थमूर्तिरिति एवमुत्तरत्रापि योजनीयम् । २ सिद्धादौ । ३ नामसंकीर्तनं कर्तुमयोग्यमिति । ४ ध्यात्वा । ५ गुणैः प्रतीतः । 'गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाहितलक्षणो'इत्यभिधानात् । ६ म्लानि कुर्वन् । ७जिनस्य। ८ तैलाभ्यङगन । ६ दिव्यास्त्र । १० -व्यस्त्रट०। करमुक्तः । ११ सामान्यास्त्र । १२ प्रकृष्टज्ञानातिशयम् । १३ स्वामित्वम्। १४ निजोपवर्हासनादि । 'उपधानं तूपवर्हम्' इत्यभिधानात् । १५ निःपरिग्रहः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org