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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
२८९ परमजिनपदानुरक्तधीः
भजति पुमान् य इमं क्रियाविधिम् । स धुतनिखिलकर्मबन्धनो
जननजरामरणान्तकृद् भवेत् ॥२१०॥
शार्दूलविक्रीडितम् भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचितां जातस्ततः सद्गृही
पारिवाज्यमनुत्तरं गुरुमतादासाद्य यातो दिवम् । तत्रैन्त्रीं श्रियमाप्तवान् पुनरतश्च्युत्वा गतश्चक्रिताम्
प्राप्ताहन्त्यपदः समग्रमहिमा प्राप्नोत्यतो नि तिम् ॥२११॥
इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे दीक्षाकर्बन्वयक्रियावर्णनं नाम
एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व ॥३६॥
वाला जो भव्य पुरुष उक्त क्रियाओंसहित जिनमतमें कहे हुए इस पुराणके धर्मका अथवा प्राचीन धर्मका स्मरण करता है और उसीके अनुसार आचरण करता है वह संसारसम्बन्धी भयके बन्धनोंको शीघ्र ही तोड़ देता है-नष्ट कर देता है ॥२०९॥ जिसकी बुद्धि अत्यन्त उत्कृष्ट जिनेन्द्रभगवान्के चरणकमलोंमें अनुरागको प्राप्त हो रही है ऐसा जो पुरुष इन क्रियाओंकी विधिका सेवन करता है वह समस्त कर्मवन्धनको नष्ट करता हुआ जन्म, बुढापा और मरणका अन्त करनेवाला होता है ।।२१०॥ यह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जातिको पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरुकी आज्ञासे उत्कृष्ट पारिव्रज्यको प्राप्तकर स्वर्ग जाता है, वहां उसे इन्द्रकी लक्ष्मी प्राप्त होती है, तदनन्तर वहांसे च्युत होकर चक्रवर्ती पदको प्राप्त होता है, फिर अरहन्त पदको प्राप्त होकर उत्कृष्ट महिमाका धारक होता है और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त होता है ॥२११॥
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें दीक्षान्वय और कन्वय क्रियाओं का वर्णन करनेवाला उनतालीसवां पर्व
समाप्त हुआ।
१ विनाशकारी। २ स्वर्गात् ।
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