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चत्वारिंशत्तमं पर्व
३०१ प्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितयसङकल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवाः ॥२॥ तीर्थकृद्गणच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे । पूजाडगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥३॥ कण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥८४॥) अस्मिन्नग्नित्रय पूजां मन्त्रः कुर्वन् द्विजोत्तमः । प्राहिताग्निरिति शेयो नित्यज्या यस्य सद्मनि ॥८॥ पहविष्पाके च धुपे च दीयोद्बोधनसंविधौ । वह्नीनां विनियोगः स्याद् अमीषां नित्यपूजने ॥८६॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्याद् इदमग्नित्रयं गहे । नव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥८७) न स्वतोऽग्ने : पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किन्त्वहद्दिव्यमूर्तीज्यासम्बन्धात् पावनोऽनलः ॥८॥ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दुष्यति ॥८६॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः । जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥६॥ साधारणास्त्विमे मन्त्राः सर्वत्रव क्रियाविधौ । यथा सम्भवमुन्नेष्ये'२ विशेषविषयाश्च तान् ॥१॥
सफेद वस्त्र पहने हुए हैं, पवित्र हैं, यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं और जिसका चित्त आकुलतासे रहित है ऐसा द्विज इन मन्त्रोंके द्वारा समस्त क्रियाएँ करें।८।। क्रियाओंके प्रारम्भ में उत्तम द्विजोंको रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके इन्द्र के मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिये ॥८२॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थङ्कर, गणधर और सामान्य केवलीके अन्तिम अर्थात् निर्वाणमहोत्सवमें पूजाका अंग होकर अत्यन्त पवित्रताको प्राप्त हुई मानी जाती हैं ॥८३।। गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामसे प्रसिद्ध इन तीनों महाअग्नियोंको तीन कुण्डोंमें स्थापित करना चाहिये ।।८४।। इन तीनों प्रकारको अग्नियोंमें मंत्रोंके द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि अथवा अग्निहोत्री कहलाता है ॥८५।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्तियोंका विनियोग नैवेद्यके पकानेमें, धपखने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्नि में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्निसे दीपक जलाया जाता है ॥८६॥ घरमें बड़े प्रयत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिये और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगोंको कभी नहीं देनी चाहिये ॥८७।। अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप ही है किन्तु अरहन्तदेवकी दिव्य मूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥८८॥ इसलिये ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतएव निर्वाणक्षेत्रकी पूजाके समान अग्निकी पूजा करने में कोई दोष नहीं है। भावार्थ-जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके सम्बन्धसे क्षेत्र भी पूज्य हो जाते हैं उसी प्रकार उनके सम्बन्धसे अग्नि भी पूज्य हो जाती है अतएव जिस प्रकार निर्वाण आदि क्षेत्रोंकी पूजा करने में दोष नहीं है उसी प्रकार अग्निकी पूजा करने में भी कोई दोष नहीं है ॥८९॥ ब्राह्मणोंको व्यवहार नयकी अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिये जैन ब्राह्मणोंको भी आज यह व्यवहारनय उपयोगमें लाना चाहिये ॥९०।। ये ऊपर कहे हुए मन्त्र साधारण मन्त्र हैं, सभी क्रियाओंमें काम आते हैं अब विशेष क्रियाओंसे सम्बन्ध रखनेवाले विशेष मन्त्रोंको यथासम्भव कहता हूँ ॥९१॥
१ संस्कार्याः । २ केवली। ३ परिनिर्वाणमहोत्सवे । ४ कारणत्वम् । ५ चरुपचने । ६ गार्हपत्यादीनाम् अग्नित्रयाणं । यथासंख्येन हविःपाकादिषु त्रिषु विनियोगः स्यात् । ७ गर्भाधानादिसंस्काररहिताः। ८ अग्नित्रयपूजा । ६ कारणात् । १० व्यवहतु योग्यः । ११ विप्रस्य ।-जन्मभिः ६०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । १२ लृट् । वक्ष्ये ।
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