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महापुराणम् अर्हनमातृपदं तद्वत्त्वन्तमहत्सुताक्षरम् । अनादिगमनस्येति तथाऽनुपमजन्मनः ॥२८॥ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामीत्यतः परम् । बोद्ध्यन्तं च ततः सम्यग्दष्टि द्वित्वेन योजयेत् ॥२६॥ ज्ञानमूतिपदं तद्वत्सरस्वतिपदं तथा। स्वाहान्तमन्ते वक्तव्यं काम्यमन्त्रश्च' पूर्ववत् ॥३०॥
चूणिः-सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अहंन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु ।
जातिमन्त्रोऽयमाम्नातो जातिसंस्कारकारणम् । मन्त्रं निस्तारकादि च यथाम्नायमितो वे ॥३१॥ निस्तारकमन्त्र:-- स्वाहान्तं सत्यजाताय पदमादावनुस्मृतम् । तदन्तमहज्जातायपदं स्यात्तदनन्तरम् ॥३२॥ ततः षट्कर्मणे स्वाहा पदमुच्चारयेत् द्विजः । स्याद्ग्रामयतये स्वाहा पदं तस्मादनन्तरम् ॥३३॥ अनादिश्रोत्रियायेति ब्रूयात् स्वाहापदं ततः। तच्च स्नातकायेति थावकायेति च द्वयम् ॥३४॥
सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवका शरण लेता हूं), इस प्रकार कहना चाहिये । इसके बाद 'अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (मैं अरहन्त पदके योग्य जन्म धारण करनेवाले का शरण लेता हूं) 'अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि' (अर्हन्तदेवकी माताका शरण लेता हूं,) 'अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि' (अरहन्तदेवके पुत्रका शरण लेता हूं), 'अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि' (अनादि ज्ञानको धारण करनेवालेका शरण लेता हूं), 'अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (उपमारहित जन्मको धारण करनेवालंका शरण लेता हं) और 'रत्नत्रयस्य शरण प्रपद्यामि' (रत्नत्रयका शरण ग्रहण करता हूं) ये मन्त्र बोलना चाहिये । तदनन्तर सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, ज्ञानमूर्ति और सरस्वती पदका दो दो बार उच्चारणकर अन्तमें स्वाहा शब्द बोलना चाहिये अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति, स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते हे ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति, मैं तेरे लिये हवि समर्पण करता हं) यह मन्त्र कहना चाहिये और फिर काम्य मन्त्र पहलेके समान ही पढ़ना चाहिये ॥२७-३०।। ऊपर कहे हुए पीठिका मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है
'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे ज्ञानमर्ते ज्ञानमतें, सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।' .
ये मन्त्र जातिसंस्कारका कारण होनेसे जाति मन्त्र कहलाते हैं अब इसके आगे निस्तारक मन्त्र कहते हैं ॥३१॥ सबसे पहले 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्यरूप जन्मको धारण करने वालेके लिये मैं हवि समर्पण करता हूं) इस मन्त्रका स्मरण किया गया है फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' (अरहन्तरूप जन्मको धारण करनेवालेके लिये मैं हवि समर्पित करता हूं) यह मन्त्र बोलना चाहिये और इसके बाद षट्कर्मणे स्वाहा (देवपूजा आदि छह कर्म करनेवाले के लिये हवि समर्पित करता हूं), इस मन्त्रका द्विजको उच्चारण करना चाहिये। फिर 'ग्रामयतये स्वाहा' (ग्रामयतिके लिये समर्पण करता हैं), यह मन्त्र बोलना चाहिये ।।३२-३३॥
४ द्विः कृत्वा योज
१तु शब्दः अन्ते यस्य तत् । २ सम्बुद्धयन्तम् । ३ सम्यग्दृष्टिपदम्। येदित्यर्थः। ५ पट्परमस्थानेत्यादि । ६ प्रोक्तः । ७ स्वाहान्तम् ।
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