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महापुराणम् सुरेन्द्रमन्त्र एषः स्यात् सुरेन्द्रस्यानुतपर्णम् । मन्त्रं परमराजारि वक्ष्यामीतो यथाश्रुतम् ॥५६॥ प्रागत्र' सत्यजाताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततः स्यावहज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥५७॥ ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहेत्येतत्पदं मतम् । विजयाादिजाताय पदं स्वाहान्तमन्वतः ॥५८॥ ततोऽपि नेमिनाथाय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः परमराजाय स्वाहेत्येतदुदाहरेत् ॥५६॥ परमार्हताय स्वाहा पदमस्मात्परं पठेत् । स्वाहान्तमनुपायोक्तिरतो वाच्या द्विजन्मभिः ॥६०॥ सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । उग्रतेजः पदं चैव दिशाञ्जयपदं तथा ॥६१॥ नेम्यादिविजयं चैव कुर्यात् स्वाहापदोत्तरम् । काम्यमन्त्रं च तं ब्रूयात् प्राग्वदन्ते पदैस्त्रिभिः ॥६२॥
चुणिः-सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमराजाय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।
मन्त्रः परमराजादितोऽयं परमेष्ठिनाम् । परं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽह परमा श्रुतिः ॥६३॥ अपमत्यविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।
__ यह सुरेन्द्रको संतुष्ट करनेवाला सुरेन्द्र मन्त्र कहा। अब आगे शास्त्रोंके अनुसार परमराजादि मन्त्र कहते हैं ॥५६।। इन मन्त्रों में सर्वप्रथम 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्य जन्म धारण करनेवालेको हवि समर्पण करता हूँ) यह पद पढ़ना चाहिये, फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' (अरहन्त पदके योग्य जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हूँ) यह उत्कृष्ट पद पढ़ना चाहिये ॥५७। इसके बाद 'अनुपमेन्द्राय स्वाहा' (उपमारहित इन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती के लिये समर्पण करता हूँ) यह पद कहना चाहिये। तदनन्तर विजयार्चजाताय स्वाहा' (विजयरूप तथा तेजःपूर्ण जन्मको धारण करनेवालेके लिये समर्पण करता हँ) इस पदका उच्चारण करना चाहिये ॥५८॥ इसके पश्चात् 'नेमिनाथाय स्वाहा' (धर्मरूप रथके प्रवर्तकको समर्पण करता हूँ) यह पद पढ़ना चाहिये और उसके बाद 'परमजाताय स्वाहा' (उत्कृष्ट जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हैं) यह पद बोलना चाहिये ।।५९॥ फिर 'परमाईताय स्वाहा' (उत्कृष्ट उपासकको समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिये और इसके बाद द्विजोंको 'अनुपमाय स्वाहा' (उपमारहित के लिये समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोलना चाहिये ॥६०।। तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिये तथा इसी प्रकार सम्बोधनान्त उग्रतेजः पद, दिशाजय पद और नमिविजय पदको दो दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिये
और अन्त में पहलेके समान तीन तीन पदोंसे काम्य मन्त्र बोलना चाहिये अर्थात् सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे उग्रतेजः उग्रतेज: दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, हे प्रचण्ड प्रतापके धारक, हे दिशाओंको जीतनेवाले, हे नेमिविजय, मैं तुम्हें हवि समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलकर कास्थमन्त्र पढ़ना चाहिये ॥६१-६२॥
परमराजादि मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है
'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्चजाय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्ट, उग्रतेजः, उग्रतेजः, दिशांजय दिशांजय, नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।
ये मन्त्र परमराजादि मन्त्र माने गये हैं। अब यहांसे आगे जिस प्रकार परम शास्त्रमें १ परमराजादिमन्त्रे। २ परमजाताय प०, ल०, अ०, ५०, स० ।
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