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एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व
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· चयैषा गहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारहितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ॥१४६।। त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शी वधेनाहद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यानिराकृतिः ॥१५०॥ चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्यावाहते मते। चातुराश्रम्यमन्येषाम् अविचारितसुन्दरम् ॥१५॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽय भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानाम् उत्तरोत्तरशद्धितः ॥१५२॥) ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन सान्तर्भेदाः पृथग्विधाः । ग्रन्थगौरवभीत्या तु नात्रतेषां प्रपञ्चना ॥१५३॥ सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृहणम् । पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्धं क्रियान्तरम् ॥१५४॥
इति सद्गहित्वम् । गार्हस्थ्यमनुपाल्पवं गृहवासाद विरज्यतः' । यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ॥१५॥ पारिवाज्यं परिव्राजो भावो निर्वाणवीक्षणम् । तत्र निर्ममता वृत्त्या जातरूपस्य धारणम् ॥१५६॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्न ग्रहांशके। निर्ग्रन्थाचार्यमाश्रित्य दीक्षा प्राह्या मुमुक्षुणा ॥१५७।) विशुद्धकलगोत्रस्य सदवृत्तस्य वपुष्मतः। दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं समुखस्य सुमेधसः॥१५८।। "ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥१५॥
की जाती है तथा अन्तमें अपना सब कुटुम्ब पुत्रके लिये सौंपकर घरका परित्याग किया जाता है ॥१४८।। यह गृहस्थ लोगोंकी चर्या कही, अब आगे साधन कहते हैं। आयुके अन्द
अन्त समयमें शरीर आहार और समस्त प्रकारकी चेष्टाओंका परित्याग कर ध्यानकी शुद्धिसे जो आत्माको शुद्ध करना है उसे साधन कहते हैं ।।१४९।। अरहन्तदेवको माननेवाले द्विजोंका पक्ष, चर्या और साधन इन तीनोंमें हिंसाके साथ स्पर्श भी नहीं होता, इस प्रकार अपने ऊपर ठहराये हुए दोषोंका निराकरण हो सकता है ॥१५०।। चारों आश्रमोंकी शुद्धता भी श्री अर्हन्तदेवके मतमें ही है । अन्य लोगोंने जो चार आश्रम माने हैं वे विचार किये बिना ही सुन्दर हैं अर्थात् जब तक उनका विचार नहीं किया गया है तभी तक सुन्दर हैं ॥१५१॥ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियोंके चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होनेसे प्राप्त होते
ये चारा हा आश्रम अपने अपने अन्तभदोस सहित होकर अनेक प्रकारक हो जातं हैं, उनका विस्तारके साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये परन्तु ग्रन्थ बढ जानेके भयसे यहाँ उनका विस्तार नहीं लिखा है ।।१५३।। इस प्रकार गुणोंके द्वारा अपने आत्माकी वृद्धि करना यह सद्गुहित्व क्रिया है । अब इसके आगे अत्यन्त विशुद्ध पारिव्रज्य नामकी तीसरी क्रियाका निरूपण करेंगे ॥१५४॥ यह दूसरी सद्गृहित्व क्रिया है।
इस प्रकार गृहस्थधर्मका पालन कर घरके निवाससे विरक्त होते हुए पुरुषका जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे पारिव्रज्य कहते हैं ॥१५५।। परिव्राट्का जो निर्वाणदीक्षारूप भाव है उसे पारिव्रज्य कहते हैं, इस पारिव्रज्य क्रियामें ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना पड़ता है ॥१५६॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहोंके अंशमें निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये ॥१५७।। जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है ॥१५८॥ जिस दिन ग्रहोंका उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमापर परिवेष (मण्डल) हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोंका उदय हो, आकाश मेघपटलसे ढका हुआ हो, नष्ट मास
५ मुहूर्तः ।
१ चेष्टा। २ चतुराश्रमत्वम्। ३ नानाप्रकाराः। ४ विरक्ति गच्छतः । ६ ग्रहांशकैः ल०, द०, अ०, प०, इ०, स० । ७ चन्द्रादिग्रहणे ।
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