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महापुराणम् तदेष परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति वतैः शीलैश्च भूषितः ॥१३॥ व्रतचिह्नं भवेदस्य सूत्र मन्त्रपुरःसरम् । सर्वज्ञाशाप्रधानस्य द्रव्यभावविकल्पितम् ॥१४॥ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमौपासिकं तु स्याद् भावारूढस्त्रिभिर्गुणः ॥५॥ यदैव लब्धसंस्कारः परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ॥६६॥ 'लम्भयन्त्पचितां शेषां जैनी पुष्परथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ॥७॥ अयोनिसम्भवं दिव्यज्ञानगर्भसमुद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सज्जातिभाग्भवेत् ॥८॥ ततोऽधिगतसज्जातिः सद्गहित्वमसौ भजेत् । गहमेधीभवनाषट्कर्माण्यनुपालयन् ॥९॥ यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमत् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालुः समाचरेत् ॥१०॥ जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं० द्विजसत्तमः ॥१०॥ तमेनं धर्मसाद्ध तं श्लाघन्ते धामिकाः जनाः। परं तेज इव ब्राह्मम् अवतीर्ण महीतलम् ॥१०२॥ स यजयाजयन्१३ धीमान् यजमान रुपासितः५ । अध्यापयन्नधीयानो६१ वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥१०३॥
को प्राप्त करता है उस समय वह उत्कृष्ट ज्ञानरूपी गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उत्पन्न होता है और व्रत तथा शीलसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है ॥९२-९३॥ सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाला वह द्विज जो मंत्रपूर्वक सूत्र धारण करता है वही उसके व्रतोंका चिह्न है, वह सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ॥९४।। तीन लरका जो यज्ञोपवीत है वह उसका द्रव्यसूत्र है और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी गुणोंसे बना हुआ जो श्रावकका सूत्र है वह उसका भावसूत्र है ॥९५॥ जिस समय वह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्रह्मको प्राप्त होता है उस समय आचार्य लोग आशीर्वादरूप वचनोंसे उसकी प्रशंसा कर उसे पुष्प अथवा अक्षतोंसे जिनेन्द्र भगवानकी आशिषिका ग्रहण कराते हैं अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजासे बचे हुए पुष्प अथवा अक्षत उसके शिर आदि अंगोंपर रखवाते हैं क्योंकि यह एक प्रकारका स्थिरीकरण है और धर्ममें अत्यन्त उत्साह बढ़ानेवाला है ॥९६-९७।। इस प्रकार जब यह भव्य जीव बिना योनिके प्राप्त हुए दिव्यज्ञानरूपी गर्भसे उत्पन्न होनेवाले उत्कृष्ट जन्मको प्राप्त होता है तब वह सज्जातिको धारण करनेवाला समझा जाता है ॥९८॥ यह सज्जाति नामकी पहली क्रिया है।
तदनन्तर जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व क्रियाको प्राप्त होता है इस प्रकार जो सद्गृहस्थ होता हुआ आर्य पुरुषोंके करने योग्य छह कर्मोका पालन करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान्के द्वारा कहे हुए उन उन समस्त आचरणोंका जो आलस्यरहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेजको धारण करता है ।।९९-१०१॥ उस समय धर्मस्वरूप हुए उस भव्यकी अन्य धर्मात्मा लोग यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू पृथिवीतलपर अवतीर्ण हुआ उत्कृष्ट ब्रह्मतेजके समान है ।।१०२।। पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोंसे भी कराता
१ यज्ञसूत्रम् । २ उपासकाचारसम्बन्धि । ३ मनसा विकल्पितः । ४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः । उपलब्धि-उपयोगसंस्कारैर्वा । ५ परमज्ञानम्, परमतपो वा। ६ आचार्याः। ७ प्रापयन्ति । ८ प्रवर्तनम् । ६ समाचरन् द०, अ०, ल०, प०, इ०, स० । १० वृत्ताध्ययनसम्पत्तिम् । 'स्याद् ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययर्नाद्धः' इत्यभिधानात् । ११ ज्ञानसम्बन्ध्युत्कृष्टतेज इव । १२ यजनं कुर्वन् । १३ यजनं कारयन् । १४ पूजाकारकैः । १५ आराधितः । १६ अध्ययनं कारयन् । १७ आगम-आगमाङ्ग ।
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