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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व
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सकान्तां रमयामास हारज्योत्स्नाञ्चित स्तनीम् । शारदीं निविशन् ज्योत्स्नां सौधोत्सङ्गेषु हारिषु ॥ १४०॥ सोत्पलां 'कुब्ज ब्धा मालां चूडान्तलम्बिनीम् । बाला पत्युरुरः सङगान्मेने बहुरतिश्रियम् ॥ १४१ ॥ इति सोत्कर्षमेवास्यां प्रथयन् प्रेमनिघ्नताम् । स रेमे रतिसाद्भूतो' भोगाङ्गैर्दशधोदितैः ॥ १४२ ॥ सरत्ना निधयो दिव्याः पुरं शय्यासने चमूः । नाटयं सभाजनं भोज्यं वाहनं चेति तानि वै ॥ १४३ ॥ दशाङ्गमिति भोगाङ्गं निविशन् स्वाशितं ' भवम् । स चिरं पालयामास भुवमेकोष्णवारणाम् ॥ १४४ ॥ षोडशास्य सहस्राणि गणबद्धामराः प्रभोः । ये युक्ता धृतनिस्त्रिशा निधिरत्नात्मरक्षणे ॥ १४५ ॥ क्षितिसार " इति ख्यातः प्राकारोऽस्य गृहावृतिः । गोपुरं सर्वतोभद्रं प्रोल्लसद्रत्नतोरणम् ॥१४६॥ नन्द्यावर्तो निवेशोऽस्य शिबिरस्यालघीयसः । प्रासादो वैजयन्ताख्यो यः सर्वत्र सुखावहः ॥ १४७॥ दिक्स्वस्तिका सभाभूमिः परार्द्धमणिकुट्टिमा । तस्य चङक्रमणी यष्टिः सुविधिर्मणिनिर्मिता ॥ १४८ ॥ गिरिकूटकमित्यासीत् सौधं दिगवलोकने" । वर्धमानक मित्यन्यत् १५ प्रेक्षागृहमभूद् विभोः ॥१४६॥ धर्मान्तोऽस्य " महानासीद् धारागृहसमा ह्वयः । गृहकूटकमित्युच्चैः वर्षावासः प्रभोरभूत् ॥ १५०॥ पुष्करावर्त्यभिख्यं च हर्म्यमस्य सुधासितम् । कुबेरकान्तमित्यासीद् भाण्डागारं यदक्षयम् ॥ १५१ ॥ के प्रारम्भमें वह चक्रवर्ती, जिनमें नवीन खिले हुए सप्तच्छद वृक्षोंकी सुगन्ध फैल रही है ऐसे वनोंमें अपनी स्त्रीके साथ विहार करता हुआ क्रीडा करता था || १३९ ।। राजभवनकी मनोहर छतोंपर शरद् ऋतुकी चांदनीका उपभोग करता हुआ वह चक्रवर्ती हारकी कान्तिसे जिसके स्तन सुशोभित हो रहे हैं ऐसी प्रिया सुभद्राको प्रसन्न करता था उसके साथ क्रीडा करता था ॥ १४० ।। जब कभी रानी सुभद्रा पतिके वक्षःस्थलपर लेट जाती थी उस समय उसके मस्तकपर कंचुकियों के द्वारा गुंथी हुई भरतकी कमलों सहित माला लटकने लगती थी और उसे वह बड़े प्रेमसे सूंघती थी ।। १४१ ।। इस प्रकार इस सुभद्रादेवी में प्रेमकी परवशताको अच्छी तरह प्रकट करता हुआ और रतिसुखके आधीन हुआ वह चक्रवर्ती दश प्रकारके कहे हुए भोगोंके साधनोंसे क्रीडा करता था ।। १४२ ।। रत्नसहित नौ निधियां, रानियां, नगर, शय्या, आसन, सेना नाट्यशाला, वर्तन, भोजन और सवारी ये दश भोगके साधन कहलाते हैं ॥ १४३ ॥ इस प्रकार अपनेको तृप्त करने वाले दश प्रकारके भोगके साधनों का उपभोग करते हुए महाराज भरतने चिरकालतक जिसपर एक ही छत्र है ऐसी पृथिवीका पालन किया ॥ १४४॥ चक्रवर्ती भरतके ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव थे जो कि तलवार धारणकर निधि, रत्न और स्वयं उनकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहते थे ।। १४५ || उनके घरको घेरे हुए क्षितिसार नामका कोट था और देदीप्यमान रत्नोंके तोरणोंसे युक्त सर्वतोभद्र नामका गोपुर था ।। १४६ । उनकी बड़ी भारी छावनीके ठहरनेका स्थान नन्द्यावर्त नामका था और जो सब ऋतुओं में सुख देनेवाला है ऐसा वैजयन्त नामका महल था ॥ १४७ ॥ बहुमूल्य मणियोंसे जड़ी हुई दिकस्वस्तिका नामकी सभाभूमि थी और टहलने के समय हाथ में लेनेके लिये मणियोंकी बनी हुई सुविधि नामकी लकड़ी थी ।। १४८।। सब दिशाएं देखने के लिये गिरिकूटक नामंका राजमहल था और उन्हीं चक्रवर्तीके नृत्य देखने के लिये वर्धमानक नामकी नृत्यशाला थी || १४९ ॥ | उन चक्रवर्तीके गर्मीको नष्ट करनेवाला धारागृह नामका बड़ा भारी स्थान था और वर्षाऋतुमें निवास करने के लिये बहुत ऊंचा गृहकूटक नामका महल था ।। १५० ।। चूनासे सफेद हुआ पुष्करावर्त नामका १ 'कुब्जिका भद्रतरणी बृहत्पत्रातिकेशरा | महासहा' इति धन्वन्तरिः । २ रचिताम् । ३ रतिश्रीसमानामिति । पत्युरुरस्यस्य स्थिता संजिघूति स्म सा प०, ल० । ४ स्नेहाधीनताम् । ५ रत्यधीनः । ६ देव्यः द०, ल०, प० । ७ भाजनसहितम् । ८ स्वस्य तृप्तिजनकम् । सुचिरं ल० । ११ क्षितिसार इति नामा | १२ आलिङ्गभूमिः, आन्दोलनभूमिरित्यर्थः । १४ दिशा लोकार्थम् । १५ नृत्तदर्शनगृहम् । १६ घर्मान्तसंज्ञाम् ।
१० एकच्छत्राम् । १३ सुविधिनामा |
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