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सप्तत्रिंशत्तम पर्व यं नत्वा पुनरानमन्ति न परं स्तुत्वा च यं नापरं
भव्याः संस्तुवते श्रयन्ति न परं यं संश्रिताः श्रेयसे । ये सत्कृत्य कृतादरं कृतधियः सत्कुर्वते नापरम्
स श्रीमान् वषभो जिनो भवभयान्नस्त्रायतां तीर्थकृत् ।।२०५॥
इत्याष भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण सङग्रहे भरतेश्वराभ्युदयवर्णनं नाम
सप्तत्रिशत्तमं पर्व ॥३७॥
वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ।।२०४॥ भव्य लोग जिन्हें नमस्कार कर फिर किसी अन्यको नमस्कार नहीं करते, जिनकी स्तुति कर फिर किसी अन्यकी स्तुति नहीं करते, जिनका आश्रय लेकर कल्याणके लिये फिर किसी अन्यका आश्रय नहीं लेते, और बुद्धिमान् लोग जिनका सबने आदर किया है ऐसे जिनका सत्कार कर फिर किसी अन्यका सत्कार नहीं करते वे श्रीमान् वृषभ जिनेन्द्र तीर्थ कर हम सबकी संसारके भयसे रक्षा करें ॥२०५।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतेश्वरके वैभवका वर्णन करनेवाला यह
सैतीसवां पर्व समाप्त हुआ।
१ संसारभीतेरपसार्य।
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