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अष्टत्रिंशत्तम पर्व
ते तु स्वव्रतसिद्धयर्थम् ईहमाना' महान्वयाः। नैषुः प्रवेशनं तावद् यावदााडाकुराः पथि ॥१३॥ सधान्यहरितैः कीर्णम् अनाक्रम्य नृपाडागणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावधभीरवः ॥१४॥ कृतानुबन्धना' भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन "पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नुपाङगणम् ॥१५॥ प्राक् केश हेतुना यूयं नायाताः पुनरागताः । केन ब्रूतेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ॥१६॥ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नोऽनभिद्रुहाम् ॥१७॥ सस्यवानन्तशो जीवा हरितेष्वङकुरादिषु । निगोता इति सार्वज्ञ१० देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१८॥ तस्मानास्माभिराकान्तम् अद्यत्वे त्वद्गहाङगणम् । कृतोपहारमाद्रिः१२ फलपुष्पाङकुरादिभिः ॥१६॥ इति तद्वचनात् सर्वान् सोभिनन्ध दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् दानमानादिसत्कृतः ॥२०॥ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्माह्वयानिधेः । "उपात्तैब्रह्मसूत्राहः एकाग्रेकादशान्तकः ॥२१॥ गुणभूमिकृताद् भेदात्"क्लप्त यज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषाम् अवताश्च बहिः कृताः॥२२॥ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः । भजन्ति स्म परं दाढचं "लोकश्चनानपूजयत् ॥२३॥ इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥
बिना किसी सोच-विचारके राजमन्दिरमें घुस आये । राजा भरतने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगोंको बुलाया ॥१२॥ परन्तु बड़े बड़े कुलमें उत्पन्न हुए और अपने व्रतकी
लिये चेष्टा करनेवाले उन लोगोंने जब तक मार्गमें हरे अंकरे हैं तब तक उसमें प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ॥१३॥ पापसे डरनेवाले कितने ही लोग दयालु होने के कारण हरे धान्योंसे भरे हुए राजाके आंगनको उल्लंघन किये बिना ही वापिस लौटने लगे ॥१४॥ परन्तु जब चक्रवर्तीने उनसे बहुत ही आग्रह किया तब वे दूसरे प्रासुक मार्गसे राजाके आंगनको लांघकर उनके पास पहुंचे ।।१५।। आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये थे, और अब किस कारणसे आये हैं, ऐसा जब चक्रवर्तीने उनसे पूछा तब उन्होंने नीचे लिखे अनुसार उत्तर दिया ॥१६॥ आज पर्वके दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदिका विधात नहीं किया जाता और न जो अपना कुछ बिगाड़ करते हैं ऐसे उन कोंपल आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी विनाश किया जाता है ॥१७॥ हे देव, हरे अंकुर आदिमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञदेवके वचन हमलोगोंने सुने हैं ॥१८॥ इसलिये जिसमें गीले गीले फल, पुष्प और अंकुर आदिसे शोभा की गई है ऐसा आपके घरका आंगन आज हम लोगोंने नहीं खूदा है ।।१९।। इस प्रकार उनके वचनोंसे प्रभावित हुए सम्पत्तिशाली भरतने व्रतोंमें दृढ़ रहनेवाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान मान आदि सत्कारसे सन्मानित किया ॥२०॥ पद्म नामकी निधि से प्राप्त हुए एकसे लेकर ग्यारह तककी संख्यावाले ब्रह्मसूत्र नामके सूत्रसे (व्रतसूत्रसे) उन सबके चिह्न किये ।।२१।। प्रतिमाओंके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये हैं ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया ॥२२॥ अथानन्तर चक्रवर्तीने जिनका सन्मान किया है ऐसे व्रत धारण करनेवाले वे लोग अपने अपने व्रतोंमें और भी दृढ़ताको प्राप्त हो गये तथा अन्य लोग भी उनकी पूजा आदि करने लगे ॥२३॥ भरतने उन्हें उपाराकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और
१चेष्टमानाः । २ नेच्छन्ति स्म । ३ निर्गताः । ४ निर्बन्धाः । ५ मार्गेण । ६ हिंसनम् । ७ प्रवालपत्रपुष्पादिजातानाम् । ८ अस्माकम् । ६ अहिंसकानाम् । १० सर्वज्ञस्येदम् । ११ इदानीम् । १२ नितरामाः । १३ वस्त्रादिदानसद्वचनादिपूजासत्कारैः । १४ स्वीकृतः । १५ दार्शनिकादिगुणनिलयविहितात् । १६ कृत। १७ जनः ।
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