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महापुराणम्
न खट्वाशयनं तस्य नान्याडागपरिघट्टनम् । भूमौ केवलमेकाकी शयीत व्रतशुद्धये ॥११६॥ यावद् विद्यासमाप्तिः स्यात् तावदस्यदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूवं वतं तत् स्याद् तन्मूलं गृहमेधिनाम् ॥११७॥ सूत्रमौपासिकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥११॥ शब्दविद्याऽर्थशास्त्रादिर चाध्ययं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय "वयात्यख्यातयेऽपि च ॥११॥. "ज्योतिर्मानमथच्छन्दोज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । सङख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्ययं विशेषतः ॥१२०॥
इति वतचर्या । ततोऽस्याधीतविद्यस्य व्रत त्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्यौत्सर्गिके' व्रते ॥१२१॥ मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ॥१२२॥ व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षिकृतार्चनम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्वम् अथवा षोडशात् परम् ॥१२३॥ कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणोचितम् । वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वन ज्ञया ॥१२४॥ शस्त्रोपजीविवर्यश्चेद्र धारयेच्छस्त्रमप्यदः । स्ववृत्तिपरिरक्षार्थ शोभायं चास्य तद्ग्रहः ॥१२॥ भोगब्रह्मवतादेवम् अवतीर्णो भवेत्तदा । कामब्रह्मवत १३त्वस्य तावद्यावतिक्रयोत्तरा ॥१२६॥
इति व्रतावतरणम् । जलसे शुद्ध स्नान करना चाहिये ॥११५॥ उसे खाट अथवा पलंगपर नहीं सोना चाहिये, दूसरेके शरीरसे अपना शरीर नहीं रगड़ना चाहिये, और व्रतोंको विशुद्ध रखने के लिये अकेला पृथिवीपर सोना चाहिये ।।११६। जब तक विद्या समाप्त न हो तब तक उसे यह व्रत धारण करना चाहिये और विद्या समाप्त होनेपर वे व्रत धारण करना चाहिये जो कि गृहस्थोंके मूलगुण कहलाते हैं ॥११७॥ सबसे पहले इस ब्रह्मचारीको गुरुके मुखसे श्रावकाचार पढ़ना चाहिये
और फिर विनयपूर्वक अध्यात्मशास्त्र पढना चाहिये ॥११८॥ उत्तम संस्कारोको जागृत करने के लिये और विद्वत्ता प्राप्त करने के लिये इस व्याकरण आदि शब्दशास्त्र औ अर्थशास्त्र का भी अभ्यास करना चाहिये क्योंकि आचार-विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ॥११९॥ इसके बाद ज्योतिष शास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र
और गणितशास्त्र आदिका भी उसे विशेषरूपसे अध्ययन करना चाहिये ॥१२०।। यह पन्द्रहवीं व्रतचर्या क्रिया है
तदनन्तर जिसने समस्त विद्याओंका अध्ययन कर लिया है ऐसे उस ब्रह्मचारीकी व्रतावतरण क्रिया होती है। इस क्रियामें वह साधारण ब्रतोंका तो पालन करता ही है परन्तु अध्ययनके समय जो विशेष व्रत ले रक्खेथे उनका परित्याग कर देता है। ॥१२१।। इस क्रियाके बाद उसके मधुत्याग, मांसत्याग, पांच उदुम्बर फलोंका त्याग और
सा आदि पांच स्थल पापोंका त्याग. ये सदा काल अर्थात जीवन पर्यन्त रहनेवाले व्रत रह जाते हैं ।।१२२॥ यह व्रतावतरण क्रिया गुरुकी साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की पूजा कर बारह अथवा सोलह वर्ष बाद करनी चाहिये ॥१२३॥ पहले द्विजोंका सत्कार कर फिर व्रतावतरण करना उचित है और व्रतावतरण के बाद गुरुकी आज्ञासे वस्त्र, आभूषण और माला आदिका
करना उचित है ॥१२४। इसके बाद यदि वह शस्त्रोपजीवी अर्थात क्षत्रिय वर्गका है तो वह अपनी आजीविकाकी रक्षाके लिये शस्त्र भी धारण कर सकता है अथवा केवल शोभाके लिये भी शस्त्र ग्रहण किया जा सकता है ॥१२५॥ इस प्रकार इस क्रिया में यद्यपि वह भोगोपभोगोंके ब्रह्मव्रतका अर्थात् ताम्बूल आदिके त्यागका अवतरण (परित्याग) कर देता है तथापि
१ मञ्चक । २ नीतिशास्त्र । ३ दूष्यते ल०, द०। ४ धाष्टर्य । ५ ज्योतिःशास्त्रम् । ६ छन्दःशास्त्रम् । ७ गणितशास्त्रम् । ८ वृत्ति जीवन । ह साधारणे । १० कृताराधनम् । ११ वर्गे भवः । १२ निजजीवन । १३ चास्य ल० । १४ वक्ष्यमारणा, वैवाहिकी ।
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