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अष्टत्रिंशत्तम पर्व
२६१
दिशाञ्जयः स विज्ञ यो योऽस्य दिग्विजयोद्यमः। चक्ररत्न पुरस्कृत्य जयतः सार्णवां महीम् ॥२३४॥
इति दिशाञ्जयः । सिद्धदिग्विजयस्यास्य स्वपुरानुप्रवेशन। क्रिया चक्राभिषेकाहा साऽधुना सम्प्रकीर्त्यते ॥२३॥ चक्ररत्नं पुरोधाय प्रविष्टः स्वं निकेतनम् । परायविभवोपेतं स्वविमानापहासि यत् ॥२३६॥ तत्र क्षणमिवासीने रम्ये प्रमदमण्डपे । चामर:ज्यमानोऽयं सनिर्भर इवाद्रिराट् ॥२३७॥ संपूज्य निधिरनानि कृतचक्रमहोत्सवः । दत्वा किमिच्छकं दानं मान्यान् सम्मान्य पार्थिवान् ॥२३॥ ततोऽभिषेकमाप्नोति पार्थिवैर्महितान्वयः। नान्दीतूर्येषु गम्भीरं प्रध्वनत्सु सहस्रशः ॥२३६॥ यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः। क्रियते पार्थिवैर्मुख्यैः चतुभिः प्रथितान्वयैः ॥२४०॥ महाभिषेकसामग्रचा कृतचक्राभिषेचनः । कृतमङगलनेपथ्यः पार्थिवैः प्रणतोऽभिताः ॥२४१॥ तिरोटं स्फुटरत्नांश जटिलीकृतदिग्मुखम् । दधानश्चक्रसामाज्यककुदं" नृपपुडगवाः ॥२४२॥ रत्नांशुच्छुरितं बिभूत् कर्णाभ्यां कुण्डलद्वयम् । यद्वाग्देव्याः समाक्रीडारथ चक्रद्वयायितम् ॥२४३॥ तारालितरलस्थलमुक्ताफलमुरोगहे। धारयन् हारमाबद्धमिव मङगलतोरणम् ॥२४४॥
समस्त प्रजा उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेक सहित पूजा करती है ॥२३३॥ यह चक्र लाभ नामकी चवालीसवीं क्रिया है।
तदनन्तर चक्ररत्नको आगे कर समुद्रसहित समस्त पथिवीको जीतने वाले उन भगवान्का जो दिशाओंको जीतने के लिये उद्योग करना है वह दिशांजय कहलाता है ॥२३४॥ यह दिशांजय नामकी पैंतालीसवीं क्रिया है।
जब भगवान दिग्विजय पूर्णकर अपने नगरमें प्रवेश करने लगते हैं तब उनके चक्राभिषेक नामकी क्रिया होती है। अब इस समय उसी क्रियाका वर्णन किया जाता है ॥२३५।। वे भगवान् चक्र रत्नको आग कर अपने उस राजभवन में प्रवेश करते हैं जो कि बहुमल्य वैभवसे सहित होता है और स्वर्गके विमानोंकी हँसी करता है ॥२३६॥ वहांपर वे मनोहर आनन्दमण्डपमें क्षणभर विराजमान होते हैं उस समय उनपर चमर ढुलाये जाते हैं जिससे वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो निर्भरनोसहित सुमेरु पर्वत ही हो ॥२३७।। उस समय वे निधियों और रत्नोंकी पूजाकर चक्र प्राप्त होनेका बड़ा भारी उत्सव करते हैं, किमिच्छक दान देते हैं और माननीय राजाओंका सन्मान करते हैं ।।२३८।। तदनन्तर तुरही आदि हजारों मांगलिक बाजोक गभोर शब्द करत रहन पर व उत्तम उत्तम कु हुए राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं ॥२३९॥ तदनन्तर-विधिपूर्वक जिनका अभिषेक किया गया है ऐसे उन भगवान्के मस्तकपर प्रसिद्ध प्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न हुए मुख्य चार राजाओंके द्वारा मुकुट रक्खा जाता है ॥२४०॥ इस प्रकार महाभिषेककी सामग्री से जिनका चक्राभिषेक किया गया है, जिन्होंने माङ्गलिक वेष धारण किया है, जिन्हें चारों ओर से राजा लोग नमस्कार कर रहे हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले तथा चक्रवर्तीके सामाज्यके चिह्नस्वरूप मुकुटको धारण कर रहे हैं, राजाओंमें श्रेष्ठ हैं, जो अपने दोनों कानोंमें रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त तथा सरस्वतीके क्रीड़ारथके पहियोंकी शोभा देनेवाले दो कुण्डलोंको धारण कर रहे हैं, जो वक्षःस्थलरूपी घरके सामने खड़े किये हए मांगलिकतोरणके समान सशोभित होनेवाले और ताराओंकी पंक्तिके समान चंचल तथा
१क्षणपर्यन्तमेव । २ विहितचक्रपूजनः। ३ सम्पूज्य । ४ अलङ्कारः। ५ चिह्न प्रधानं वा । 'प्रधाने राजलिङ्गे च वृषाङ्गे कुमुदोऽस्त्रियामित्यभिधानात् । ६ मिश्रितम् । ७ क्रीडानिमित्तस्पन्दन ।
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