________________
२५२
महापुराणम्
धनमेतदुपादाय स्थित्वाऽस्मिन् स्वगृहे पृथक् । गृहिधर्मस्त्वया धार्यः कृत्स्नो दानादिलक्षणः ॥१३९॥ यथाऽस्मत्पितृदत्तेन धनेनास्माभिराजितम् । यशो धर्मश्च तद्वत्त्वं यशोधर्मानुपार्जय ॥ १४० ॥ इत्येवमनुशिष्यनं' वर्णलाभे नियोजयेत् । 'सदारः सोऽपि तं धर्मं तथानुष्ठातुमर्हति ॥ १४१ ॥ इति वर्णलाभक्रिया । लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनुकीर्त्यते । सां त्विज्यादत्तिवार्तादिलक्षणा प्राक् प्रपञ्चिता ॥ १४२॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ॥ १४३॥ इति कुलचर्या क्रिया । कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्म दाढर्चमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्य भावेन संश्रयेत् स गृहीशिनाम् ॥ १४४॥ ततो वर्णोत्तमत्वेन स्थापयेत् स्वां गृहीशिताम् । शुभवृत्तिक्रियामन्त्रविवाहैः सोत्तरक्रियैः ॥ १४५॥ अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभि: । स्वमुन्नतिं नयन्नेष तदाऽर्हति गृहीशिताम् ॥ १४६॥ वर्णोत्तमो महादेवः सुश्रुतो द्विजसत्तमः । निस्तारको ग्रामयतिः मानाहंश्चेति मानितः ॥ १४७ ॥ इति गृही शिता । सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सन् प्रशान्तिमतः श्रयेत् ॥ १४८ ॥
भी पहले के समान सिद्ध प्रतिमाओं का पूजन कर पिता अन्य मुख्य श्रावकोंको साक्षी कर उनके सामने पुत्रको धन अर्पण करे तथा यह कहे कि यह धन लेकर तुम इस अपने घरमें पृथक् रूपसे रहो। तुम्हें दान पूजा आदि समस्त गृहस्थधर्म पालन करते रहना चाहिये। जिस प्रकार हमारे पिताके द्वारा दिये हुए धनसे मैंने यश और धर्मका अर्जन किया है उसी प्रकार तुम भी यश और धर्मका अर्जन करो। इस प्रकार पुत्रको समझाकर पिता उसे वर्णलाभ में नियुक्त करे और सदाचारका पालन करता हुआ वह पुत्र भी पिताके धर्मका पालन करनेके लिये समर्थ होता है। ।।१३८-१४१।। यह अठारहवीं वर्णलाभ क्रिया है ।
जिसे वर्णलाभ प्राप्त हो चुका है ऐसे पुत्रके लिये कुलचर्या क्रिया कही जाती है और पूजा, दत्ति तथा आजीविका करना आदि सब जिसके लक्षण हैं ऐसी कुलचर्या क्रियाका पहले विस्तार के साथ वर्णन कर चुके ॥ १४२ ॥ निर्दोष रूप से आजीविका करना तथा आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कार्य करना यही गृहस्थोंकी कुलचर्या कहलाती है और यही उनका कुलधर्म माना जाता है ।। १४३ ॥ | यह उन्नीसवीं कुलचर्या क्रिया है ।
तदनन्तर कुलचर्याको प्राप्त हुआ वह पुरुष धर्म में दृढताको धारण करता हुआ गृहस्थाचार्यरूपसे गृहीशिताको स्वीकार करे अर्थात् गृहस्थोंका स्वामी बने ॥ १४४॥ फिर उसे आपको उत्तमवर्ण मानकर आपमें गृहीशिता स्थापित करनी चाहिये । जो दूसरे गृहस्थोंमें न पाई जावे ऐसी शुभ वृत्ति, क्रिया, मन्त्र, विवाह तथा आगे कही जानेवाली क्रियाएं, शास्त्रज्ञान और चारित्र आदिकी क्रियाओंसे अपने आपको उन्नत करता हुआ वह गृहीश अर्थात् गृहस्थोंके स्वामी होनेके योग्य होता है ।। १४५ - १४६ ।। उस समय वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्तम, निस्तारक, ग्रामपति और मानार्ह इत्यादि कहकर लोगोंको उसका सत्कार करना चाहिये || १४७ || यह बीसवीं गृहीशिता क्रिया है।
तदनन्तर वह गृहस्थाचार्य अपना भार संभालने में समर्थ योग्य पुत्रको पाकर उसे अपनी
प०,
१ उपशिष्य । २ सदाचारः स तद्धर्मं ल० द० । ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
३ गृहस्थाचार्यस्वरूपेण । ४ ग्रामपतिः
www.jainelibrary.org