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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
२४३ समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः । निस्तारकोत्तमायह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥३८॥ समानवत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता' श्रद्धयाऽन्विता ॥३६॥ प्रात्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यवशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥४०॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् स्वाध्यायः श्रुतभावना। तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥४१॥ विशुद्धा वृत्तिरेषां षट्तयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामेदिमां सोऽज्ञो नाम्न व न गुद्धिजः ॥४२॥ तपः श्रुतञ्च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः॥४३॥ अपापोपहतां वृत्तिः स्यादेषां जातिरुत्तमा । दत्तीज्याधीति मुख्यत्वाद् व्रतशुद्धचा सुसंस्कृता ॥४४॥ मनुष्यजातिरकव जातिनामोदयोद्धवा । 'वृत्तिभेदाहिताद्धदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥४५॥ ब्राह्मणा वतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥४६॥ तप:श्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ॥४७॥ द्विजातो हि द्विजन्मेष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामन्त्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ॥४८॥ तवेषां जातिसंस्कारं द्रढयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषतः॥४६॥
सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं ।।३७।। क्रिया, मंत्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसारसमुद्रसे पार कर देनेवाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिये पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्रके लिये समान बुद्धिसे श्रद्धाके साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति कहलाता है ॥३८-३९॥ अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिये पुत्रको समस्त कुलपद्धति तथा धनके साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करनेको सकलदत्ति कहते हैं। शास्त्रोंकी भावना (चिन्तवन) करना स्वाध्याय है, उपवास आदि करना तप है और व्रत धारण करना संयम है ॥४०-४१॥ यह ऊपर कही हुई छह प्रकारकी विशुद्ध वृत्ति इन द्विजोक करने योग्य है। जो इनका उल्लंघन करता है वह मूर्ख नाममात्रसे ही द्विज है, गुणसे द्विज नहीं है ॥४२॥ तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण हैं, जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है ॥४३॥ इन लोगोंकी आजीविका पापरहित है इसलिये इनकी जाति उत्तम कहलाती है तथा दान, पूजा, अध्ययन आदि कार्य मुख्य होनेके कारण व्रतोंकी शुद्धि होनेसे वह उत्तम जाति और भी सुसंस्कृत हो गई है ॥४४॥ यद्यपि जाति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है तथापि आजीविकाके भेदसे होनेवाले भेदके कारण वह चार प्रकारकी हो गई है ॥४५॥ व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण, शस्त्र धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमानेसे वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ॥४६॥ इसलिये द्विज जातिका संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे ही माना जाता है परन्तु तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्रसे द्विज' कहलाता है ॥४७।। जो एक बार गर्भसे और दूसरी बार क्रियासे इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसे द्विजन्मा अथवा द्विज कहते हैं परन्तु जो क्रिया और मंत्र दोनोंसे ही रहित है वह केवल नामको धारण करनेवाला द्विज है ॥४८॥ इसलिये इन द्विजोंकी जातिके संस्कारको दृढ करते हुए समाट भरतेश्वरने द्विजोंके लिये नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे ॥४९॥
१ संसारसागरोत्तारक। २ दानम् । ३ मध्यमत्वं गते। ४ प्रवृत्त्या ल०। ५ सद्धर्मधनाभ्याम् । ६ गुणैद्विजः ल०, अ०, १०, स०, इ० । ७ स्वाध्याय । ८ सुसंस्कृता सती। ६ वर्तन । १० नीचवृत्ति । ११ अतः कारणात् ।
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