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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
૨૪૭ द्वादशाहात् परं नामकर्म जन्मदिनान्मतम । अनुकले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥८७॥ ययाविभवमष्टं देवविद्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत् स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत् ॥८॥ "अष्टोत्तरसहस्राद् वा जिननामकदम्बकान् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ॥८६)
इति नामकर्म । बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासस्त्रिचतुरैरुत । यथानकलमिष्टेऽह्नि कार्य तूर्यादिमङगलैः ॥६॥ ततः प्रभुत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिःप्रणयनं मात्रा धात्र्युत्सङगगतस्य वा ॥१॥ तत्र बन्धुजनादर्थलाभो यः पारितोषिकः । स तस्योत्तरकालेऽर्यो धनं पित्र्यं यदाप्स्यति ॥१२॥
इति बहिर्यानम् । ततः परं निषद्यास्य क्रिया बालस्य कल्प्यते । तद्योग्ये तल्प प्रास्तीर्ण कृतमडगलसन्निधौ ॥३॥ सिद्धार्चनादिकः सर्वो विधिः पूर्ववदत्र" च । यतो दिव्यासनाह त्वम् अस्य स्यादुत्तरोत्तरम् ॥१४॥
इति निषद्या। ___ जन्मदिनसे बारह दिनके बाद, जो दिन माता पिता और पुत्र के अनुकूल हो, सुख देनेवाला हो उस दिन नामकर्मकी क्रिया की जाती है ॥८७॥ इस क्रियामें अपने वैभवके अनुसार अर्हन्तदेव और ऋषियोंकी पूजा करनी चाहिये, द्विजोंका भी यथायोग्य सत्कार करना चाहिये तथा जो वंशकी वृद्धि करनेवाला हो ऐसा कोई उत्तम नाम बालकका रखना चाहिये ।।८८॥ अथवा जिनेन्द्रदेवके एक हजार आठ नामोंके समूहसे घटपत्र की विधिसे कोई एक शुभ नाम ग्रहण कर लेना चाहिये। भावार्थ-भगवान् के एक हजार आठ नामोंको एक हजार आठ कागजके टुकड़ोंपर अष्टगंधसे सुवर्ण अथवा अनार की कलमसे लिख कर उनकी गोली बना लेवे और पीले वस्त्र तथा नारियल आदिसे ढके हुए
घडे में भर देवे, कागजके एक टकडेपर 'नाम' ऐसा शब्द लिखकर उसकी गोली बना लेवे इसी प्रकार एक हजार सात कोरे टुकड़ोंकी गोलियां बनाकर इन सबको एक दूसरे घड़े में भर देवे, अनन्तर किसी अबोध कन्या या बालकसे दोनों घड़ोंमेसें एक एक गोली निकलवाता जावे। जिस नामकी गोलीके साथ नाम ऐसा लिखी हुई गोली निकले वही नाम बालकका रखना चाहिये। यह घटपत्र विधि कहलाती है ॥८९॥ यह सातवीं नामकर्म क्रिया है।
तदनन्तर दो-तीन अथवा तीन-चार माहके बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजोंके साथ साथ अपनी अनुकूलताके अनुसार बािन क्रिया करनी चाहिये ॥९०॥ जिस दिन यह क्रिया की जावे उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदमें बैठे हुए बालकका प्रसूतिगृहसे बाहर ले जाना शास्त्रसम्मत है ॥९१॥ उस क्रियाक करते समय बालकको भाई बान्धव आदिसे पारितोषिक-भेंटरूपसे जो कुछ धनकी प्राप्ति हो उसे इकट्ठा कर, जब वह पुत्र पिताके धनका अधिकारी हो तब उसके लिये सौंप देवे ॥९२॥ यह आठवीं बहिर्यान किया है।
तदनन्तर, जिसके समीप मङ्गलद्रव्य रक्खे हुए हैं और जो बालकके योग्य हैं ऐसे बिछाये हुए आसनपर उस बालककी निषद्या क्रिया की जाती है अर्थात् उसे उत्तम आसनपर बैठालते हैं ॥९३॥ इस क्रिया में सिद्ध भगवान की पूजा करना आदि सब विधि पहले के समान ही करनी चाहिये जिससे इस बालककी उत्तरोत्तर दिव्य आसनपर बैठने की योग्यता होती रहे ॥९४॥ यह नौंवी निषद्या क्रिया है ।
१ द्वौ वा त्रयो वा द्विवास्तैः। २ अथवा। ३ प्रसववेश्मनः सकाशात् । ४ परितोषे भवः । ५ शय्यायाम्। ६ विस्तीर्णे। ७ निषद्याक्रियायाम् । ८ निषद्याक्रियायाः ।
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