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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व पुण्यकल्पतरोरासन फलान्यतानि चक्रिणः। यान्यनन्योपभोग्यानि भोगाडागान्यतुलानि वै ॥१०॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी । पुण्याद् विना कुतस्तादृग अभेद्यं गात्रबन्धनम् ॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृडनिधिरद्धिरूजिता । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् इभाश्वादिपरिच्छदः॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अन्तःपुरमहोदयः। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् दशाङ्गो भोगसम्भवः ॥१९३॥ पुण्याद विना कुतस्तादग प्राज्ञाद्वीपाब्धिलङ्गिनी । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् जयश्रीजित्वरी दिशाम् ॥१९४॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक्प्रतापः प्रणतामरः । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् उद्योगो लङ्घितार्णवः ॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृग् प्राभवं त्रिजगज्जयि । पुण्याद् विना कुतस्तादृक् 'नगराजजयोत्सवः ॥१६६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक् सत्कार स्तत्कृतोऽधिकः। पुण्याद् विना कुतस्तादक सरिद्देव्यभिषेचनम् ॥१६७। पुण्याद् विना कुतस्तादृक् खचराचलनिर्जयः। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्रत्नलाभोऽन्यदुर्लभः ॥१९॥ पुण्याद् विना कुतस्ताद ग 'पायतिर्भरतेऽखिले। पुण्याद् विना कुतस्तादृक कीििदक्तट लङधिनी ॥१६६।। ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम् । चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसम्पदाम् ॥२०॥
लगनेवाला है और मसाले बगैरहसे जिनका संस्कार किया गया है ऐसे अमृतकल्प नामके उनके स्वाद्य पदार्थ थे तथा रसायनके समान रसीला अमृत नामका दिव्य पानक अर्थात् पीने योग्य पदार्थ था ।।१८९।। चक्रवर्तीके ये सब भोगोपभोगके साधन उसके पुण्यरूपी कल्पवृक्षके फल थे, उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता था और वे संसारमें अपनी बराबरी नहीं रखते थे ॥१९०॥
पुण्यके बिना चक्रवर्तीके समान अनुपम रूपसम्पदा कैसे मिल सकती है ? पुण्यके बिना वैसा अभेद्य शरीरका बंधन कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना अतिशय उत्कृष्ट निधि और रत्नोंकी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना वैसे हाथी घोड़े आदिका परिवार कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना वैसे अन्तःपुरका वैभव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना दस प्रकारके भोगोपभोग कहां मिल सकते हैं ? पुण्यके बिना द्वीप और समुद्रोंको उल्लंघन. करनेवाली वैसी आज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना दिशाओंको जीतनेवाली वैसी विजयलक्ष्मी कहां मिल सकती है ? पुण्यके बिना देवताओंको भी नम करनेवाला वैसा प्रताप कहां प्राप्त हो सकता है ? पुण्यके बिना समुद्रको उल्लंघन करनेवाला वैसा उद्योग कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना तीनों लोकोंको जीतने वाला वैसा प्रभाव कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना वैसा हिमवान् पर्वतको विजय करनेका उत्सव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना हिमवान देवके द्वारा किया हुआ वैसा अधिक सत्कार कहां मिल सकता है ? बिना पुण्यके नदियोंकी अधिष्ठात्री देवियोंके द्वारा किया हआ वैसा अभिषेक कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना विजयाध पर्वतको जीतना कैसे हो सकता है ? पुण्यके बिना अन्य मनुष्योंको दुर्लभ वैसे रत्नोंका लाभ कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना समस्त भरतक्षेत्रमें वैसा सुन्दर विस्तार कैसे हो सकता है ? और पुण्यके बिना दिशाओंके किनारेको उल्लंघन करनेवाली वैसी कीर्ति कैसे हो सकती है ? इसलिये हे पण्डित जन, चक्रवर्तीकी विभूतिको पुण्यके उदयसे उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्यका संचय करो जो कि समस्त सुख और सम्पदाओंकी दुकानके समान
३ गङगासिन्धुदेवी। ४ धनागमः प्रभावो वा ।
१ हिमवगिरि। २ हिमवन्नगस्थसुरकृतः । ५ लम्भिनी इ०। ६ ततः कारणात् ।
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