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संजर
महापुराणम्
शार्दूलविक्रीडितम् इत्याविष्कृतसम्पदो विजयिनस्तस्याखिलक्ष्माभताम्
स्फीतामप्रतिशासनां प्रथयतः षट्खण्डराज्यश्रियम् । कालोऽनल्पतरोऽप्यगात् क्षण इव प्राकपुण्यकर्मोदयाद्
उद्भूतः प्रमदावहः षड्ऋतुजैर्भोगैरतिस्वादुभिः ॥२०१॥ -नानारत्न निधानदेशविलसत्सम्पत्तिगुर्वीमिमां
सामाज्यश्रियमेकभोगनियतां कृत्वाऽखिलां पालयन । योऽभूनैव किलाकुलः कुलवधूमेकामिवाडकस्थिता
सोऽयं चक्रधरोऽभुनक भुवमममेकातपत्रां चिरम् ॥२०२॥ यन्नाम्ना भरतावनित्वमगमत् षट्क्ष ण्डभूषा मही
येनासेतुहिमादिरक्षितमिदं क्षेत्रं कृतारिक्षयम् । यस्याविनिधिरत्नसम्पदुचिता लक्ष्मीरुरःशायिनी
स श्रीमान् भरतेश्वरो निधिभुजामप्रेसरोऽभूत् प्रभुः ॥२०३॥ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचिंद
ध्येयो योगिजनस्य यश्च न तरां ध्याता स्वयं कस्यचित् । नेतुमुन्नतिमलं नन्तव्यपक्षे स्थितः स श्रीमान् जयताज्जगत्त्रयगुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥२०४॥
यो नन्तृ नपिन
है ॥१९१-२००॥ इस प्रकार जिसने सम्पदाएं प्रकट की हैं, जिसने समस्त राजाओंको जीत लिया है, और जो दूसरेके शासनसे रहित अपने छह खण्डकी विस्तृत राज्यलक्ष्मीको निरन्तर फैलाता रहता है ऐसे उस चक्रवर्ती भरतका बड़ा भारी समय पूर्व पुण्यकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए, सब तरहका आनन्द देनेवाले और अत्यन्त स्वादिष्ट छहों ऋतुओंके भोगोंके द्वारा क्षण•भरके समान व्यतीत हो गया था ॥२०१॥ अनेकों रत्नों, निधियों और देशोंसे सुशोभित हुई सम्पत्तिके द्वारा जो भारी गौरवको प्राप्त हो रही है ऐसी इस समस्त साम्राज्यलक्ष्मीको एक अपने ही उपभोग करने के योग्य बनाकर उसका पालन करता हुआ जो चक्रवर्ती गोदमें बैठी हुई कुलवधूकी रक्षा करते हुएके समान कभी व्याकुल नहीं हुआ वह भरत एक छत्रवाली इस पृथिवीका चिरकाल तक पालन करता रहा था ।।२०२।। छह खण्डोंसे विभूषित पृथिवी जिसके नामसे भरतभमि नामको प्राप्त हई, जिसने दक्षिण समद्रसे लेकर हिमवान पर्वततकके इस क्षेत्रमें शत्रुओंका क्षय कर उसकी रक्षा की, तथा प्रकट हुई निधि और रत्न आदि सम्पदाओंसे योग्य लक्ष्मी जिसके वक्षःस्थलपर शयन करती थी वह प्रभु श्रीमान् भरतेश्वर निधियोंके स्वामी अर्थात् चक्रवर्तियोंमें प्रथम और मुख्य चक्रवर्ती हुआ था ॥२०३॥ जो तीनों जगत के जीवों के द्वारा स्तुति करने के योग्य हैं परन्तु जो स्वयं किसीकी स्तुति नहीं करते, बड़े बड़े योगी लोग जिनका ध्यान करते हैं परन्तु जो किसीका ध्यान नहीं करते, जो नमस्कार करनेवालोंको भी उन्नत स्थानपर ले जाने के लिये समर्थ हैं परन्तु स्वयं नमस्कार करने योग्य पक्षमें स्थित हैं अर्थात् किसीको नमस्कार नहीं करते, वे तीनों जगत्के गुरु अत्यन्त पवित्र श्रीमान् भगवान्
१निधि । २ आत्मनः एकस्यैव भोगनियताम् । ३ पालयति स्म। ४ षट्खण्डालङकारा । ५ दक्षिणसमुद्रात् प्रारभ्य हिमवगिरिपर्यन्तम् । ६ नमनशीलान् । ७ समर्थः । ८ नमनयोग्यपक्षे । स्वयं कस्यापि नन्ता नेत्यर्थः ।
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