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सप्तत्रिंशत्तम पर्व साशोककलिकां चूतमञ्जरी कर्णसङगिनीम् । दधती' चम्पकप्रोत्तः केशान्तः साऽरुचन्मधौ ॥११॥ मधौ' मधुमदारक्तलोचनामास्खलद्गतिम् । बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदश्रियम् ॥११॥ कलैरलिकुलक्वाणः सान्यपुष्ट विकूजितः । मधुरं मधुरभ्यष्टोत् तुष्टोवामुं विशाम्पतिम् ॥१२०॥ कलकण्ठीकलक्वाण छितरलिझडकृतः । व्यज्यते स्म स्मराकाण्डावस्कन्दो डिण्डिमायितः ॥१२॥ पुष्पच्चूतवनोद्गन्धिः० उत्फुल्लकमलाकरः । पप्रथं सुरभिर्मासः१ सुरभीकृतदिग्मुखः ॥१२२॥ हृतालिकुलझडकारः सञ्चरन्मलयानिलः । अनङगनपतेरासीद् घोषयन्निव शासनम् ॥१२३॥ सन्ध्यारुणां कलामिन्दोः मेने लोको जगद्ग्रस:१३ । करालामिव रक्ताक्तां" दंष्ट्रां मदनरक्षसः ॥१२४॥ उन्मत्तकोकिल काल तस्मिन्मत्तषट्पदे । नानुन्मत्तो जनः कोऽपि मुक्त्वानडग"हो मुनीन् ॥१२५॥ सायमुदगाहनिणिक्तः प्रस्तुहिनशीतलः । ग्रीष्मे मदनतापात सास्याङग निरवापयत् ॥१२६।। चन्दनद्रवसंसिक्तसुन्दराऊगलतां प्रियाम् । परिरभ्य८ दृढं दोभ्यां स लेभे गात्रनिर्वृतिम् ॥१२७॥
मदनज्वरतापार्ता तीवग्रीष्मोष्मनिःसहाम० । स तां निर्वापयामास स्वाङगस्पर्शसुखाम्बुभिः ॥१२८॥ द्वारा उत्पन्न हुई स्तनोंकी कँपकँपीको क्लेश दूर करनेवाले प्रिय पतिके करतलके स्पर्शसे दूर करती थी ॥११७।। अशोकवृक्षकी कलीके साथ साथ कानोंमें लगी हुई आमकी मंजरीको धारण करती हुई वह सुभद्रा वसन्तऋतुमें चम्पाके फूलोंसे गुंथी हुई चोटीसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी ॥११८॥ वसन्तऋतुमें मधुके मदसे जिसकी आंखें कुछ कुछ लाल हो रही हैं और जिसकी गति कुछ कुछ लड़खड़ा रही है-स्खलित हो रही है ऐसी उस सुभद्राको भरत महाराज मतिमती मदकी शोभाके समान बहत कुछ मानते थे ।।११९।। वह वसन्तऋतु सन्तुष्ट होकर भूमरोंकी सुन्दर झंकार और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे मानो राजा भरतकी सुन्दर स्तुति ही करता था ॥१२०॥ कोयलोंके सुन्दर शब्दोंसे मिली हुई भूमरोंकी झंकारसे ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवने नगाड़ोंके साथ अकस्मात् आक्रमण ही किया होछापा ही मारा हो ।।१२१॥ फूले हुए आमके वनोंसे जो अत्यन्त सुगन्धित हो रहा है, जिसमें कमलोंके समह फूले हुए हैं और जिसने समस्त दिशाएं सुगन्धित कर दी हैं ऐसा वह वसन्तका चैत्र मास चारों ओर फैल रहा था ॥१२२।। भूमरसमूहकी झंकारको हरण करनेवाला, चारों ओर फिरता हुआ मलयसमीर ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवरूपी राजाके शासनकी घोषणा ही कर रहा हो ॥१२३॥ उस समय सन्ध्याकालकी लालीसे कुछ कुछ लाल हई चन्द्रमा की. कलाको लोग ऐसा मानते थे मानो जगत्को निगलनेवाले कामदेवरूपी राक्षसकी रक्तसे भीगी हुई भयंकर डांढ़ ही हो ॥१२४।। जिसमें कोयल और भूमर सभी उन्मत्त हो जाते हैं ऐसे उस वसन्तके समय कामदेवके साथ द्रोह करनेवाले मुनियोंको छोड़कर और कोई ऐसा मनष्य नहीं था जो उन्मत्त न हआ हो ॥१२५॥ सायंकालके समय जलमें अवगाहन करनेसे जो स्वच्छ किये गये हैं और जो बर्फके समान शीतल हैं ऐसे अपने समस्त अंगोंसे वह सभद्रा ग्रीष्मकालमें कामके संतापसे संतप्त हुए भरतके शरीरको शान्त करती थी ॥१२६।। जिसकी
। सुन्दर लतापर घिस हुए चन्दनका लप किया गया है एसो अपनी प्रिया सुभद्राको भरत महाराज दोनों हाथोंसे गाढ आलिंगन कर अपना शरीर शान्त करते थे ॥१२७॥ जो कामज्वरके संतापसे पीड़ित हो रही है और जिसे ग्रीष्मकालकी तीव्र गर्मी बिलकुल ही सहन
१ बध्नन्ती ल०। २ खचितैः । ३ वसन्ते । ४ स्तौति स्म । ५ तोषगव । ६ कोकिला । ७ मिश्रितैः ।' ८ प्रकटीक्रियते स्म। ६ कामकालधाटीः। १० पुष्पीभवत् । पुष्पचूत-इ०, १०, प०, स०, द०, ल० । ११ वसन्तः । १२ आज्ञाम् । १३ लोकभक्षकस्य । १४ रुधिरलिप्ताम् । १५ कामघातकान् । १६ संध्याकालजलप्रवेशशुद्धः । १७ उष्णं परिहृत्य शैत्यं चकारेत्यर्थः । १८ आलिङ ग्य । १६ शरीरसुखम् । २० असहमानाम् ।।
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