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एकोनत्रिंशत्तमं पर्व
निष्क्रान्त इति सम्भ्रान्तरायात इति भीवशैः । प्राप्त' इत्यनवस्थैश्च' प्रणेमे सोऽरिभूमिपैः ॥ १२ ॥ महापगारयस्येव तरुरस्य बलीयसः । यो यः प्रतीपमभवत् स स निर्मूलतां ययौ ॥१३॥ "प्रतीपवृत्तिमादर्श छायात्मानं व नात्मनः । विक्रमैकरसश्चक्री सोऽसोढ किमुत द्विषम् ॥ १४ ॥ चमूरवश्रवादेव' कैश्चिदस्य विरोधिभिः । 'चमूरुवृत्तमारब्धम् अतिदूरं पलायितैः १० ॥१५॥ "महाभोगेनृपैः कैश्चिद् भयादुत्सृष्टमण्डलैः । भुजङ्गैरिव निर्मोकः तत्यजेऽपि परिच्छदः १३ ॥१६॥ प्रदुष्टान् भोगिनः " कांश्चित् प्रभुरुद्धृत्य मन्त्रतः १५ । वल्मीकेष्विव दुर्गेषु "कुल्यानन्यानतिष्ठिपत् ॥१७॥
पहले ही चलनेके लिये तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको चलनेके लिये तत्पर सुनकर स्वयं चलनेके लिये तत्पर हो जाते थे अर्थात् स्थान छोड़कर भागनेकी तैयारी करने लगते थे अथवा भरत की ही शरणमें आनेके लिये उद्यत हो जाते थे, जिस प्रकार महाराज के नगरसे बाहर निकलते ही सेनापति उनसे पहले बाहर निकल आते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको नगरसे बाहिर निकला हुआ सुनकर स्वयं अपने नगरसे बाहर निकल आते थे अर्थात् नगर छोड़कर बाहर जानेके लिये तैयार हो जाते थे अथवा भरतसे मिलनेके लिये अपने नगरोंसे बाहर निकल आते थे और जिस प्रकार महाराजके प्रस्थान करते ही सेनापति उनसे पहले प्रस्थान कर देते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजका प्रस्थान सुनकर उनसे पहले ही प्रस्थान कर देते थे अर्थात् अन्यत्र भाग जाते थे अथवा चक्रवर्तीसे मिलनेके लिये आगे बढ़ आते थे || ११ | चक्रवर्ती भरत नगरसे बाहर निकला यह सुनकर जो व्याकुल हो जाते थे, चक्रवर्ती आया यह सुनकर जो भयभीत हो जाते थे और वह समीप आया यह सुनकर जो अस्थिरचित हो जाते थे ऐसे शत्रु राजा लोग उन्हें जगह जगह प्रणाम करते || १२ || जिस प्रकार किसी महानदीके बलवान् वेगके विरुद्ध खड़ा हुआ वृक्ष निर्मूल हो जाता है - जड़ सहित उखड़ जाता है उसी प्रकार जो राजा उस बलवान् चक्रवर्तीके विरुद्ध खड़ा होता था उसके सामने विनयभाव धारण नहीं करता था वह निर्मूल हो जाता था - वंशसहित नष्ट हो जाता था ।।१३॥ एक पराक्रम ही जिसे प्रिय है ऐसा वह भरत जब कि दर्पणमें उलटे पड़े हुए अपने प्रतिविम्बको भी सहन नहीं करता था तब शत्रुओंको किस प्रकार सहन करता ? ।। १४ ।। कितने ही विरोधी राजाओंने तो उनकी सेनाका शब्द सुनते ही बहुत दूर भागकर हरिणकी वृत्ति प्रारम्भ की थी ।। १५ ।। और कितने ही वैभवशाली बड़े बड़े राजाओंने भयसे अपने अपने देश छोड़कर छत्र चमर आदि राज्य चिह्नोंको उस प्रकार छोड़ दिया था जिस प्रकार कि बड़े बड़े फणाओंको धारण करनेवाले सर्प अपने वलयाकार आसनको छोड़कर कांचली छोड़ देते हैं ||१६|| जिस प्रकार दुष्ट सर्पोंको मंत्र के जोरसे उठाकर वामीमें डाल देते हैं उसी प्रकार भरतने अन्य कितने ही भोगी- विलासी दुष्ट राजाओं को मंत्र ( मंत्रियोंके साथ की हुई सलाह ). के जोरसे उखाड़कर किलोंमें डाल दिया था, उनके स्थानपर अन्य कुलीन राजाओं को बैठाया
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१ समीपं प्राप्तः । २ अवस्थामतिक्रान्तैः । त्यक्तपूर्वस्वभावैरित्यर्थः । ३ महानदीवेगस्य । ४ प्रतिकूलम् । ५ प्रतिकूलवृत्तिम् । ६ छायास्वरूपम् । 'आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वष् च' इत्यमरः । ७ सहति स्म । सेनाध्वनिसमाकर्णनात् । ६ कम्भोजादिदे राजऋणविशेषवर्तनम् । 'कदली कन्दली चीनश्चमूरुप्रियकावपि । समूरुश्चेति हरिणा अमी अजिनयोनयः । ' इत्यभिधानात् । १० पलायिभिः ल०, प०, द० । ११ पक्ष महाकायैः । 'भोगः सुखे स्त्र्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः ' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्तभूभागैः । पक्ष त्यक्तवलयैः । १३ परिच्छदोऽपि छत्रचामरादिपरिकरोऽपि परित्यक्तः । १४ पक्षं सर्पान् । १५ मन्त्रशक्तितः । १६ सत्कुलजान् । १७ स्थापयति स्म ।
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