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महापुराणम्
प्रवेष्ट मब्जिनी पत्रच्छतं नागो नवग्रहः । नैच्छत् प्रचोद्यमानोऽपि वारि वारी विशङ्कया ॥ १२२ ॥ वनं विलोकयन् स्वैरं कवलोचितपल्लवम् । गजश्चिरगृहीतोऽपि किमप्यासीत् समुत्सुकः ॥ १२३ ॥ स्वैरं न पपुरम्भांसि नागृह्णन् कवलानपि । केवलं मनसम्भोगसुखानां सस्मरुर्गजाः ॥ १२४ ॥ उत्पुष्करान् स्फुरद्रौक्म कक्ष्यान्नित्यु द्विपान् सरः । सशयूनिव' नीलाद्रीन् सविद्युत इवाम्बुदान् ॥ १२५॥ वनद्विपमदामोदाहिने गन्धवाहिने । श्रजः कुप्यञ्जलोपान्तं निन्ये कृच्छ्रानिषादिना ॥ १२६॥ अकस्मात् कुपितो दन्तीं शिरस्तिर्यग्विधूनयन् । श्रनङकुशवशस्तीव्रम् प्रधोरणमखेदयत् ॥१२७॥ वन्यानेकप सम्भोगसङक्रान्तमववासनाम् । 'विसोढं सरसों नैच्छत्मदेभः करिणीमिव ॥ १२८ ॥ पीतं वनद्विपैः पूर्वम् अम्बु तद्दानवासितम् । द्विपः करेण सञ्जिघून् "नापावास्फालयत् परम् ॥ १२६॥ पीताम्भसो मदासारैः वृद्धि निन्युः सरोजलम् । गजा मुधा धनादानं नूनं वाच्छन्ति नोन्नताः ॥ १३० ॥ उत्पुष्करं सरोमध्ये निमग्नोऽपि मदद्विपः । रंरणद्भिः खमुत्पत्य व्यज्यते स्म मधुवतः ॥ १३१ ॥ पीताम्बुरम्बुदस्पधि बृंहितो मदकुञ्जरः । दुधावर गण्डकण्डूयां १३ चण्डगण्डूषवारिभिः ॥ १३२॥
लोग नहलानेके लिये तालाबोंपर ले गये थे ।। १२१ ।। कोई नवीन पकड़ा हुआ हाथी वार-बार प्रेरित होनेपर भी कमलिनीके पत्तोंसे ढके हुए जलमें समुद्रकी आशंकासे प्रवेश नहीं करना चाहता था ।। १२२ ।। बहुत दिनका पकड़ा हुआ भी कोई हाथी अपने इच्छानुसार खाने योग्य नवीन पत्तोंवाले वनको देखता हुआ विलक्षण रीतिसे उत्कण्ठित हो रहा था ।। १२३ ।। कितने ही हाथियोंने इच्छानुसार न तो पानी ही पिया था और न ग्रास ही उठाये थे, वे केवल वनके संभोगसुखों का स्मरण कर रहे थे ।। १२४ || जिनकी सूंड़ ऊंची उठी हुई है और जिनकी बगलमें सुवर्ण की मालाएं देदीप्यमान हो रही हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग सरोवरोंपर ले जा रहे थे, उस समय वे हाथी ऐसे जान पड़ते थे मानो अजगर सहित नील पर्वत ही हो अथवा बिजली सहित मेघ ही हों ।। १२५ ।। जो जंगली हाथी के मदकी गन्धको धारण करनेवाले वायुसे कुपित हो रहा है ऐसे किसी हाथीको उसका महावत बड़ी कठिनाईसे जलके समीप ले जा सका था ॥ १२६ ॥ अचानक कुपित हुआ कोई हाथी अपने शिरको तिरछा हिला रहा था, वह अंकुशके वश भी नहीं होता था और महावतको खेद खिन्न कर रहा था ।। १२७॥ जंगली हाथी के संभोग से जिसमें मदकी वास फैल रही है ऐसी हथिनीको जिस प्रकार कोई मदोन्मत्त हाथी नहीं चाहता है उसी प्रकार जिसमें जंगली हाथियोंकी क्रीड़ासे मदकी गंध मिली हुई है ऐसी सरोवरी में कोई मदोन्मत्त हाथी प्रवेश नहीं करना चाहता था ।। १२८ ।। जिस पानीको पहले वनके हाथी पी चुके थे और इसीलिये जो मदकी गन्धसे भरा हुआ था ऐसे पानीको सेनाके हाथियोंने नहीं पिया था, वे केवल सूंडसे संघ संघकर उसे उछाल रहे थे ।। १२९ ।। जिन हाथियोंने तालाबका पानी पिया था उन्होंने अपना मद बहा बहाकर तालाबका वह पानी बढ़ा दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो उन्नत अर्थात् बड़े होते हैं वे किसीका व्यर्थ ही धन लेने की इच्छा नहीं करते हैं ॥१३०॥ कोई मदोन्मत्त हाथी यद्यपि सूंड ऊपर उठाकर तालाबके मध्यभागमें डूबा हुआ था तथापि आकाशमें उड़कर शब्द करते हुए भूमरोंसे 'वह यहाँ है', इस प्रकार साफ समझ पड़ता था । ॥१३१॥ जो पानी पी चुका है और जिसकी गर्जना मेघोंके साथ स्पर्धा कर रही है ऐसा कोई मदोन्मत्त हाथी अपने कुरलेके जलकी तेज फटकारसे कपोलोंकी खुजली शान्त कर रहा था
१ नवो नूतनो ग्रहः स्वीकारो यस्य सः । २ गजबन्धन हेतुभूतगतिशङ्कया । इत्यभिधानात् । ३ वनस्य सम्भोगाज्जातसुखानाम् । ४ उद्गतहस्ताग्रान् । 'दृष्या कक्ष्या वरत्रा स्यात्' इत्यभिधानात् । ६ अजगरसहितान् । ७ अनिलाय । ६ आघ्रापयन् । १० न पिबन्ति स्म । ११ भृशं गुञ्जद्भिः । १२ अपनयति स्म । १३ कपोलकण्डूयनम् ।
'वारी तु गजबन्धनी' ५ सुवर्णमयसवरत्रान् । विगाढुं ल० द० ।
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