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चतुस्त्रिंशत्तमं
ब्रुवाणानिति साक्षेपं स्थापयन्पथि शाश्वते । भगवानिति तानुच्चैः अन्वशादनुशासिता ॥ ११३ ॥ महामना' वपुष्मन्तो वयस्सत्त्वगुणान्विताः । कथमन्यस्य संवाह्या यूयं भद्रा द्विपा इव ॥ ११४ ॥ भगिना' किमु राज्येन जीवितेन चलेन किम् । किञ्च भो यौवनोन्मादः ऐश्वर्यबलदूषितैः ॥११५॥ कि बलैर्बलिनां गम्यं: कि "हायर्वस्तुवाहनैः । तृष्णाग्निबोधनैरेभिः किं धनैरिन्धनैरिव ॥ ११६ ॥ भुक्त्वापि सुचिरं कालं येन तृप्तिः क्लमः परम् । विषयैस्तैरलं भुक्तविषमिवैरिवाशनैः ॥११७॥ किं च भो विषयास्वादः कोऽप्यनास्वादितोऽस्ति वः । स एव पुनरास्वादः किं तेनास्त्याशितम्भवः " ॥ ११८ ॥ यत्र शस्त्राणि मित्राणि शत्रवः पुत्रबान्धवाः । कलत्रं सर्व भोगीणा धरा राज्यं धिगीदृशम् ॥ ११६॥ भुनक्तु नृपशार्दूलो " भरतो भरतावनिम् । यावत्पुण्योदयस्तावत्तत्रालं वोऽतितिक्षया ॥१२०॥ तेनापि त्याज्यमेवेदं राज्यं भङगि" यदा तदा । हेतोरशाश्वतस्यास्य युध्वध्वं बत किं मुधा ॥ १२१ ॥ "तदलं स्पर्द्धया दध्वं यूयं धर्ममहातरोः । दयाकुसुममम्लानि यत्तन्मुक्तिफलप्रदम् ॥ १२२॥ पराराधनदैन्यानं परैराराध्यमेव यत् । तद्बो महाभिमानानां तपो मानाभिरक्षणम् ॥ १२३ ॥ दीक्षा रक्षा गुणा भूत्या दयेयं प्राणवल्लभा । इति ज्याय स्तफोराज्यमिदं श्लाध्यपरिच्छदम् ॥ १२४॥ में सिहों के साथ सुखसे बढ़ते रहते हैं ।। ११२ । इस प्रकार आक्षेपसहित कहते हुए राजकुमारों को अविनाशी मोक्षमार्ग में स्थित करते हुए हितोपदेशी भगवान् वृषभदेव इस प्रकार उपदेश देने लगे ॥११३॥ महा अभिमानी और उत्तम शरीरको धारण करनेवाले तथा तारुण्य अवस्था, बल और गुणोंसे सहित तुम लोग उत्तम हाथियोंके समान दूसरोंके संवाहय अर्थात् सेवक ( पक्ष में वाहन करने योग्य सवारी) कैसे हो सकते हो ? ॥। ११४ || हे पुत्रो, इस विनाशी राज्यसे क्या हो सकता है ? इस चंचल जीवनसे क्या हो सकता है ? और ऐश्वर्य तथा बलसे दूषित हुए इस यौनके उन्मादसे क्या हो सकता है ? ।। ११५ ।। जो बलवान् मनुष्योंके द्वारा जीती जा सकती है ऐसी सेनाओंसे क्या प्रयोजन है ? जिनकी चोरी की जा सकती है ऐसे सोना चाँदी हाथी घोड़ा आदि पदार्थोंसे क्या प्रयोजन है ? और ई धनके समान तृष्णारूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाले इस धनसे भी क्या प्रयोजन है ? ॥ ११६ ॥ चिरकाल तक भोग कर भी जिनसे तृप्ति नहीं होती, उल्टा अत्यन्त परिश्रम ही होता है ऐसे विष मिले हुए भोजन के समान इन विषयोंका उपभोग करना व्यर्थ है ।। ११७ ॥ हे पुत्रो, तुमने जिसका कभी आस्वादन नहीं किया हो ऐसा भी क्या कोई विषय बाकी है ? यह सब विषयोंका वही आस्वाद
जिसका कि तुम अनेक बार आस्वादन ( अनुभव) कर चुके हो फिर भला तुम्हें इनसे संतोष कैसे हो सकता है ? ।। ११८ || जिसमें शस्त्र मित्र हो जाते हैं, पुत्र और भाई वगैरह शत्रु हो जाते हैं तथा सबके भोगने योग्य पृथिवी ही स्त्री हो जाती है ऐसे राज्यको धिवकार हो ।। ११९ ।। जब तक पुण्यका उदय है तब तक राजाओंमें श्रेष्ठ भरत इस भरत क्षेत्रकी पृथिवीका पालन करें इस विषय में तुम लोगों का क्रोध करना व्यर्थ है ।। १२० ।। यह विनश्वर राज्य भरतके द्वारा भी जब कभी छोड़ा ही जावेगा इसलिये इस अस्थिर राज्यके लिये तुम लोग व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ।। १२१ ।। इसलिये ईर्ष्या करना व्यर्थ है, तुम लोग धर्मरूपी महावृक्ष के उस दयारूपी फुलको धारण करो जो कभी भी म्लान नहीं होता और जिसपर मुक्तिरूपी महाफल लगता है ॥ १२२ ॥ जो दूसरोंकी आराधनासे उत्पन्न हुई दीनतासे रहित है बल्कि दूसरे पुरुष ही जिसकी आराधना करते हैं ऐसा तपश्चरण ही महाअभिमान धारण करनेवाले तुम लोगों के
मानकी रक्षा करनेवाला है ।। १२३ ।। जिसमें दीक्षा ही रक्षा करनेवाली है, गुण ही सेवक
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१ उपदेशकः । २ महाभिमानिनः प्रमाणाश्च । ३ संवायाः । ४ विनश्वरेण । ५ हर्तुं योग्यैः । ६ ग्लानिः । ७ नप्तिः । ८ राज्ये । ६ सर्वेषां भोगेभ्यो हिता । १० नृपश्रेष्ठः । १२ भरतेनापि । १३ यस्मिन् काले विनश्वरमिति । १४ कारणात् । १५ महाफलम् ल० । २१
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११ अक्षमया । १६ श्रेष्ठम् ।
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