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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व
दिव्यरत्नविनिर्माण रथास्तावन्त एव हि । मनोवायुजवाः सूर्यरथप्रस्पधिरंहसः ॥ २४ ॥ कोटयोऽष्टादशाश्वानां भूजलाम्बरचारिणाम् । यत्खुराग्राणि धौतानि पूर्तस्त्रिपथगा जलः ।। २५ ।। चतुभिरधिकाशीतिः कोटयोऽस्य पदातयः । येषां सुभट सम्मर्वे निरूढं" पुरुषव्रतम् ।। २६ ।। वास्थिबन्धनं वज्रं वलयं वेष्टितं वपुः । वज्रनाराचनिभिन्नम् श्रभेद्यमभवत् प्रभोः ॥ २७ ॥ समसुप्रविभक्ताङ्गं चतुरस्रं' सुसंहति । वपुः सुन्दरमस्यासीत् संस्थानेनादिना विभोः ॥ २८ ॥ निष्टतकनकच्छायं सच्चतुःषष्टिलक्षणम् । रुरुचे व्यञ्जनैस्तस्य निसर्गसुभगं वयुः ।। २६ ।। शारीरं यच्च यावच्च बलं षट्खण्ड भूभुजाम् । ततोऽधिकतरं तस्य बलमासीद् बलीयसः ॥ ३० ॥ शासनं तस्य चक्राङकम् आसिन्धोरनिवारितम् । शिरोभिरूड मारूढविक्रमैः पृथिवीश्वरैः ॥ ३१ ॥ द्वात्रिंशन्मौलिबद्धानां सहस्राणि महीक्षिताम् । कुलाचलं रिवाद्रीन्द्रः स रेजे यैः परिष्कृतः ॥ ३२ ॥ तावन्त्येव सहस्राणि देशानां सुनिवेशिनाम् । यैरलङ्कृतमाभाति चक्रभृत्क्षेत्रमायतम् ॥ ३३ ॥ "कलाभिजात्यसम्पन्ना देव्यस्तावत्प्रमास्स्मृताः । रूपलावण्य कान्तीनां याः शुद्धाकरभूमयः ॥ ३४ ॥ म्लेच्छराजादिभिर्दत्ताः तावन्त्यो नृपवल्लभाः । अप्सरः संकथाः क्षोणों यकाभिरवतारिताः ३५ ॥ प्रवरुद्धाश्च तावन्त्यः तन्व्यः कोमल विग्रहाः । मदनोद्दीपनैर्यासां दृष्टिबाणैजितं जगत् ।। ३६ ।।
भित हैं ऐसे ऐरावत हाथीके समान चौरासी लाख हाथी थे ||२३|| जिनका वेग मन और वायुके समान है अथवा जिनकी तेज चाल सूर्य के साथ स्पर्धा करनेवाली है ऐसे दिव्य रत्नोंके वने हुए उतने ही अर्थात् चौरासी लाख ही रथ थे || २४|| जिनके खुरोंके अग्रभाग पवित्र गंगाजलसे धुले हुए हैं और जो पृथिवी, जल तथा आकाशमें समान रूपसे चल सकते हैं ऐसे अठारह करोड़ घोड़े हैं ||२५|| अनेक योद्धाओंके मर्दन करने में जिनका पुरुषार्थ प्रसिद्ध है ऐसे चौरासी करोड़ पैदल सिपाही थे ||२६|| महाराज भरतका शरीर वज की हड्डियों के बन्धन और वजू के ही वेष्टनोंसे वेष्टित था, वज्रमय कीलोंसे कीलित था और अभेद्य अर्थात् भेदन करने योग्य नहीं था । भावार्थ- उनका शरीर वज्रवृषभनाराचसंहननका धारक था ॥२७॥ उनका शरीर चतुरस्र था- चारों ओरसे मनोहर था, उसके अंगोपांगों का विभाग समानरूपसे हुआ था अंगों की मिलावट भी ठीक थी और समचतुरस्र नामके प्रथम संहननसे अत्यन्त सुन्दर था ||२८|| जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान थी और जिसपर चौंसठ लक्षण थे ऐसा उसका स्वभावसे ही सुन्दर शरीर तिल आदि व्यञ्जनोंस बहुत ही सुशोभित हो रहा था ॥२९॥ छहों खण्डक राजाओं का जो और जितना कुछ शारीरिक बल था उससे कहीं अधिक बल उस बलवान् भरतके शरीरमें था ॥३०॥ जिसका चक्र ही चिह्न है और समुद्रपर्यन्त जिसे कोई नहीं रोक सकता ऐसे उसके शासनको बड़े बड़े पराक्रमको धारण करनेवाले राजालोग अपने शिरपर धारण करते थे ।। ३१ ।। उनके बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उन राजाओंसे वेष्टित हुए महाराज भरत कुलाचलोंसे घिरे हुए सुमेरु पर्वत के समान सुशोभित होते थे ||३२|| महाराज भरतके अच्छी अच्छी रचनावाले बत्तीस हजार ही देश थे और उन सबसे सुशोभित हुआ चक्रवर्तीका लम्बा चौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा जान पड़ता था ।। ३३ । उनके उतनी ही अर्थात् बत्तीस हजार ही देवियां थीं जो कि उच्च कुल और जाति सम्पन्न थीं तथा जो रूप लावण्य और कान्तिकी शुद्ध खानिके समान जान पड़ती थीं ||३४|| इनके सिवाय जिन्होंने पृथिवीपर अप्सराओंकी कथाओं को उतार लिया था ऐसी म्लेच्छ राजा आदिकों के द्वारा दी हुई बत्तीस हजार प्रियरानियां थीं ।। ।। ३५ ।। इसी प्रकार जिनका शरीर अत्यन्त कोमल था और कामको उत्तेजित करने
१ चतुरशीतिलक्षा एव । २ वेगाः । -ल० । ७ कीलितम् । ८ मनोज्ञम् ।
३ गंगा । ४ प्रसिद्धम् । ६ सुसम्बद्धम् । १० भूभुजाम् ।
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५ पौरुषम् । ६ बन्धनैर्वा ११ कुलजात्यभि -ल० ।
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