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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व दर्गाटवी सहस्राणि तस्याष्टाविशतिर्मता। 'वनधन्वाननिम्नादिविभागैर्या विभागिताः ॥७॥ म्लेच्छराजसहस्राणि तस्याष्टदशसंख्यया। रत्नानामुद्भवक्षेत्रं यः समन्तादधिष्ठितम् ॥७२॥ कालाख्यश्च महाकालो नैस्स lः पाण्डुकाह्वया । पद्ममाणवपिङगाब्ज सर्वरत्नपदादिकाः ॥७३॥ निधयो नव तस्यासन प्रतीतैरिति नामभिः। यैरयं गृहवार्तायां निश्चिन्तोऽभूनिधीश्वरः ॥५४॥) निधि : पुण्यनिधेरस्य कालाख्यः प्रथमो मतः । यतो लौकिकशब्दादिवार्तानां प्रभवोऽन्वहम् ॥ इन्द्रियार्था मनोज्ञा ये वीणावंशानकादयः । तान् प्रसूते यथाकालं निधिरेष विशेषतः ॥७६॥ असिमष्यादिषट्कर्मसाधनद्रव्यसम्पदः । यतः शश्वत् प्रसूयन्ते महाकालो निधिः स वै ॥७७॥ शय्यासनालयादीनां नै:सात् प्रभवो निधेः। पाण्डुकाद्धान्यसम्भूतिः षड्रसोत्पत्तिरप्यतः ॥७॥ पट्टांशुकदुकूलादिवस्त्राणां प्रभवो यतः। स पद्माख्यो निधिः पद्मागर्भाविर्भावितोऽद्युतत् ॥७॥ दिव्याभरणभेदानाम् उद्भवः पिङगलानिधेः। माणवानीतिशास्त्राणां शस्त्राणां च समुद्भवः ॥८॥ शङखात् प्रदक्षिणावर्तात् सौवर्णी सृष्टिमुत्सृजन् । स शङखनिधिरुत्प्रेडखदुक्मरोचिजितारुक् ॥८॥ सर्वरत्नान्महानोलनीलस्थूलो पलादयः। प्रादुःसन्ति। मणिच्छायारचितेन्द्रायुधत्विषः॥८२॥
रत्नानि द्वितयान्यस्य जीवाजीवविभागतः । ९क्ष्मात्रागैश्वर्यसम्भोगसाधनानि चतुर्दश ॥८३॥ बतलाई है ॥७०॥ अट्ठाईस हजार ऐसे सघन वन थे जो कि निर्जल प्रदेश और ऊंचे ऊंचे पहाड़ी विभागोंमें विभक्त थे ॥७१॥ जिनके चारों ओर रत्नोंके उत्पन्न होनेके क्षेत्र अर्थात खाने विद्यमान हैं ऐसे अटारह हजार म्लेच्छ राजा थे ॥७२॥ महाराज भरतके काल, महाकाल, नैस्सl, पाडुण्क, पद्म, माणव, पिङ्ग, शंख और सर्वरत्न इन प्रसिद्ध नामोंसे युक्त ऐसी नौ निधियां थीं कि जिनसे चक्रवर्ती घरकी आजीविकाके विषयमें बिलकुल निश्चिन्त रहते थे ॥७३-७४॥ पुण्यकी निधिस्वरूप महाराज भरतके पहली काल नामकी निधि थी जिससे प्रत्येक दिन लौकिक शब्द अर्थात् व्याकरण आदिके शास्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥७५।। तथा वीणा, बाँसुरी, नगाड़े आदि जो जो इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषय थे उन्हें भी यह निधि समयानसार विशेष रीतिसे उत्पन्न करती रहती थी ॥७६। जिससे असि, मषी आदि छह कोक साधनभूत द्रव्य और संपदाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती थीं वह महाकाल नामकी दूसरी निधि थी ॥७७॥ शय्या, आसन तथा मकान आदिकी उत्पत्ति नैसर्ग्य नामकी निधिसे होती थी। पाण्डुक निधिसे धान्योंकी उत्पत्ति होती थी इसके सिवाय छह रसोंकी उत्पत्ति भी इसी निधिसे होती थी ॥७८॥ जिससे रेशमी सूती आदि सब तरहके वस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती है और जो कमलके भीतरी भागोंसे उत्पन्न हुएके समान प्रकाशमान है ऐसी पद्म नामकी निधि अत्यन्त देदीप्यमान थी ॥७९॥ पिङ्गल नामकी निधिसे अनेक प्रकारके दिव्य आभरण उत्पन्न होते रहते थे और माणव नामकी निधिसे नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकारके शस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥८०॥ जो अपने प्रदक्षिणावर्त नामके शंखसे सुवर्णकी सृष्टि उत्पन्न करती थी और जिसने उछलती हुई सुवर्ण जैसी कान्तिसे सर्यकी किरणोंको जीत लिया है ऐसी शंख नामकी निधि थी॥८१॥ जिसके मणियोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुषकी शोभा प्रकट हो रही है ऐसी सर्वरत्न नामकी निधिसे महानील, नील तथा पद्मराग आदि अनेक तरहके रत्न प्रकट होते थे ॥८२।। इनके सिवाय भरत महाराजके जीव और अजीवके भेदसे दो विभागोंमें बंटे हए चौदह रत्न भी थे जो कि पथिवीकी रक्षा और ऐश्वर्यके उपभोग करनेके साधन थे ।।८।।
१ मरुभूमि। 'समानो मरुधन्वानौ' इत्यभिधानात् । २ धन्वन्निम्नानिम्नाद्रि-द०। वनधन्वननम्रादि-ल० । ३ कुक्षिवासम् । ४ म्लेच्छराजैः। ५ पिङग पिङगल। अब्ज कमल । ६ व्यापारे । ७ कालनिधेः । ८ जनयन् । ६ उच्चलत्। १० पद्मरागः । ११ प्रकटीभवन्ति । १२ पृथ्वीरक्षा ।
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