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महापुराणम्
चक्रातपत्रदण्डासिमणयश्चर्म काकिणी । चमूगृहपतीभाश्वयोषित्तक्षपुरोधसः ॥८४॥ 'चकासिदण्डरत्नानि सच्छत्राण्यायुधालयात । जातानि मणिचर्माभ्यां काकिणी श्रीगृहोदरे ॥८५॥ स्त्रीरत्नगजवाजीनां प्रभवो रौप्यशैलतः । रत्नान्यन्यानि साकेताज्जज्ञिरे निधिभिः समम् ॥ ८६ ॥ निधीनां सह रत्नानां गुणान् को नाम वर्णयेत् । 'यैरावजितमूर्जस्वि' हृदयं चक्रवर्तिनः ॥८७॥ भेजे षट्ऋतुजानिष्टान् भोगान् पञ्चेन्द्रियोचितान् । स्त्रीरत्नसार' थिस्तद्धि निधानं सुखसम्पदाम् ॥ ८८ ॥ कान्तारत्नमभूत्तस्य सुभद्रेत्यनुपद्रुतम्' । भद्रिकाऽसौ प्रकृत्येव" जात्या विद्याधरान्वया ॥5॥ शिरीषकुमाराङगी चम्प" कच्छदसच्छविः । बकुलामोदनिःश्वासा पाटला पाटलाधराः ॥ ६०॥ प्रबुद्धपद्म सौम्यास्या नीलोत्पलदलेक्षणा । सुभू रलिकुलानीलमृदुकुञ्चितमूर्द्धजा ॥१॥ तनूदरी वरारोहा १५ वामोरूनिविडस्तनी । मृदुबाहूलता साऽभून्मदनाग्नेरिवारणिः तत्क्रमौ" नूपुरामञ्जुगुज्जितैर्मुखरीकृतौ । मदनद्विरदस्येव तेनतुर्जयडिण्डिमम् ॥ ६३ ॥ निःश्रेणीकृत्य तज्जङधे सदूरुद्वारबन्धनाम् । वासगेहास्थयाऽनङ्गस्तच्छ्रोणीं" नूनमासदत् ॥ ६४॥
॥६२॥
चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न थे और सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सिलावट और पुरोहित ये सात सजीव रत्न थे ॥ ८४ ॥ चक्र, दण्ड, अि और छत्र ये चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे तथा मणि, चर्म और काकिणी ये तीन रत्न में प्रकट हुए थे ॥८५॥ स्त्री, हाथी और घोड़ाकी उत्पत्ति विजयार्ध शैलपर हुई थी तथा अन्य रत्न निधियों के साथ साथ अयोध्या में ही उत्पन्न हुए थे ॥ ८६ ॥ जिनके द्वारा सेवन किया हुआ चक्रवर्तीका हृदय अतिशय बलिष्ठ हो रहा था उन निधियों और रत्नोंका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥८७॥ | वह चक्रवर्ती स्त्रीरत्न के साथ साथ छहों ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले पञ्चेन्द्रियों के योग्य भोगोंका उपभोग करता था सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री ही समस्त सुख सम्पदाओं का भण्डार है ॥८८॥ महाराज भरतके रोगादि उपद्रवोंसे रहित सुभद्रा नामकी स्त्रीरत्न थी, वह सुभद्रा स्वभावसे ही भद्रा अर्थात् कल्याणरूप थी और जातिसे विद्याधरोंके वंशकी थी ॥ ८९ ॥ उसके समस्त अंग शिरीषके फूलके समान कोमल थे, कान्ति चम्पाकी कलीके समान थी, श्वासोच्छ्वास बकौली ( मौलश्री) के फूलके समान सुगन्धित था, अधर गुलाब के फूल के समान कुछ कुछ लाल थे, मुख प्रफुल्लित कमलके समान सुन्दर था, नेत्र नील कमलके दलके समान थे, भौंहें अच्छी थीं, केश भ्रमरोंके समूहके समान काले, कोमल और कुछ कुछ टेढ़े थे, उदर कृश था, नितम्ब सुन्दर थे, जाँचें मनोहर थीं, स्तन कठोर थे और भुजारूपी लताएँ कोमल थीं, इस प्रकार वह सुभद्रा कामरूपी अग्निको उत्पन्न करनेके लिये अरणिके समान थी । भावार्थ- जिस प्रकार अरणि नामकी लकड़ीसे अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उस सुभद्रा से दर्शकों के मनमें कामाग्नि उत्पन्न हो उठती थी ॥९० - ९२ ॥ नूपुरोंकी मनोहर
कारसे वाचालित हुए उसके दोनों चरण ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवरूपी हाथी के विजय के नगाड़े ही बजा रहे हों ।। ९३ ।। ऐसा मालूम होता था मानो कामदेव अपने निवासगृहपर पहुंचने की इच्छासे उस सुभद्राकी दोनों जंबाओंको नसैनी बनाकर जिसमें उत्तम ऊरु ही
१ चक्रदण्डासि - ल० द० अ०, प०, स०, इ० । २ ४ रत्ननिधिभिः । ५ वशीकृतम् । ६ सहाय: । ७ स्त्रीरत्नम् । ८ १० मङ्गलमूर्तिः । ११ स्वभावेन । १२ चम्पककुसुमदल । १५ उत्तमनितम्बा । "वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरवरिगनी" १७ अग्निमन्थनकाष्ठम् । १८ सुभद्राचरणौ । १६ कटिम् । 'कटो ना श्रोणिफलकं कटिः श्रोणिः ककुद्मती' इत्यभिधानात् ।
उत्पत्तिः । ३ रत्नसहितानाम् । स्थानम् । ९ रोगादिभिरपीडितम् । १३ कुबेराक्षी । १४ ईषदरुण | इत्यभिधानात् । १६ मनोहर ।
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