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सप्तत्रिंशत्तमं पर्व
३ ॥ ४ ॥
अथ निर्वर्तिताशेषदिग्जयो भरतेश्वरः । पुरं साकेतमुत्केत् प्राविक्षत् परया श्रिया ॥ १ ॥ 'तत्रास्य' सुपशार्दूलः अभिषेकः कृतो मुदा । चातुरन्तजय श्रीस्ते प्रथतां भुवनेष्विति ॥ २ ॥ तमभ्यषिञ्चन् पौराश्च सान्तःपुरपुरोधसः । चिरायुः पृथिवीराज्यं "क्रियाद् देव भवानिति ॥ राज्याभिषेचने भर्तुर्यो विधिवृषभेशिनः । स सर्वोऽत्रापि तीर्थाम्बुसम्भारादिः कृतो नृपः ॥ तथाऽभिषिक्तस्तेनैव विधिनाऽलङ्कृतोऽधिराट् । तथैव जयघोषादिः प्रयुक्तः सामरैन्पैः ॥ तथैव सत्कृता विश्वे पार्थिवाः ससनाभयः । तथैव तर्पितो लोकः परया दानसम्पदा ॥ ६ ॥ " तथाध्वनन् महाघोषा" नान्दीघोषा महानकाः । प्रक्षुभ्यदब्धिनिर्घोषो येषां घोषैरधः कृतः ॥ ७ ॥ श्रानन्दिन्यो महाभेर्यः तथैवाभिहता मुहुः । सङ्योतविधिरारब्धः तथा प्रमदमण्डये ॥ ८ ॥ मूर्धाभिषिक्तैः प्राप्ताभिषेकस्यास्याजनि द्युतिः । मेराविवाभिषिक्तस्य नाकीन्द्रेरादिवेधसः ॥ ६ ॥
५ ॥
सिन्धू सरिद्देव्यौ साक्षतं स्तीर्थवारिभिः । श्रभ्योक्षिष्टां तमभ्येत्य रत्नभृङ्गारसम्भूतैः ॥ १० ॥ कृताभिषेकमेनं व नृपासनमधिष्ठितम् । 'गणबद्धामरा भेजुः प्रणम् मंणि मौलिभिः ॥ ११ ॥
अथानन्तर जिसने समस्त दिग्विजय समाप्त कर लिया है ऐसे भरतेश्वरने जिसमें अनेक ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे अयोध्यानगरमें बड़े वैभवके साथ प्रवेश किया ॥ १ ॥ चतुरंग विजयसे उत्पन्न हुई आपकी लक्ष्मी संसार में अतिशय वृद्धि और प्रसिद्धिको प्राप्त होती रहे यही विचार कर बड़े बड़े राजाओंने उस अयोध्या नगरमें हर्ष के साथ महाराज भरतका अभिषेक . किया था ||२|| हे देव, आप दीर्घजीवी होते हुए चिरकालतक पृथिवीका राज्य करें, इस प्रकार कहते हुए अन्तःपुर तथा पुरोहितोंके साथ नगरके लोगोंने उनका अभिषेक किया था ॥३॥ जो विधि भगवान् वृषभदेवके राज्याभिषेकके समय हुई थी, तीर्थोंका जल इकट्ठा करना आदि वह सब विधि महाराज भरतके अभिषेकके समय भी राजाओंने की थी ||४|| देवोंके साथ साथ राजाओंने भगवान् वृषभदेवके समान ही भरतेश्वरका अभिषेक किया था, उसी प्रकार आभूषण पहनाये थे और उसी प्रकार जयघोषणा आदि की ॥५॥ उसीप्रकार परिवार के लोगों के साथ साथ राजाओं का सत्कार किया गया था, और उसीप्रकार दानमें दी हुई सम्पत्ति से सब लोग संतुष्ट किये गये थे || ६ | जिनके शब्दोंने क्षोभित हुए समुद्र के शब्दको भी तिरकृत कर दिया था. ऐसे बड़े बड़े शब्दोंवाले मांगलिक नगाड़े उसीप्रकार बजाये गये थे ||७|| उसी प्रकार आनन्दकी महाभेरियां बार बार बजाई जा रही थीं और आनन्दमण्डपमें संगीतकी विधि भी उसी प्रकार प्रारम्भ की गई थी ॥८॥ मेरु पर्वतपर इन्द्रोंके द्वारा अभिषेक किये हुए आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवकी जैसी कान्ति हुई थी उसी प्रकार राजाओं के द्वारा अभिषेकको प्राप्त हुए महाराज भरतकी भी हुई थी ॥ ९ ॥ गंगा-सिन्धु नदियोंकी अधिष्ठात्री गंगा-सिन्धु नामकी देवियोंने आकर रत्नोंके भृङ्गारोंमें भरे हुए अक्षत सहित तीर्थजलसे भरतका अभिषेक किया था ।। १० ।। जिनका अभिषेक समाप्त हो चुका है और जो राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतकी अनेक गणबद्धदेव अपने मणिमयी मुकुटोंको नवा-नवाकर
१ साकेतपुर्याम् । २ चक्रिणः ४ कुरु । स०, इ० । ५ समूह । मङगलरवाः । ८ अभिषेकं चक्रतुः ।
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। ३ चतुर्दिक्षु भवा जयलक्ष्मीः । चातुरङग - ल०, अ०, प०, ६ यथा वृषभोऽभिषिक्तः । ६ अङ्गरक्षदेवाः ।
एवमुत्तरत्रापि योज्यम् ।
७ प्रथम
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