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महापुराणम् हिमवद्विजयाधेशौ मागधाद्याश्च देवताः। खेचराश्चोभयश्रेण्योः तं नमर्नम्रमौलयः॥१२॥ सोऽभिषिक्तोऽपि नोत्सिक्तो बभूव नपसत्तमः। महता हि मनोवृत्तिः नोत्सेक'परिरम्भिणी ॥१३॥ चामरैरुज्यमानोऽपि न निवृत्तिमगाद् विभुः। भ्रातृष्वसंविभक्ता श्रीः इतीहानुशयानुगः ॥१४॥ दोर्बलिभ्रातृसङघर्षात् नास्य तेजो विकषितम् । प्रत्युतोत्कषिहेम्नो वा घुष्टस्य निकषोपले ॥१५॥ निष्कण्टकमिति प्राप्य साम्राज्यं भरताधिपः। बभौ भास्वानिवोद्रिक्तप्रतापः शुद्धमण्डलः ॥ १६ ॥ क्षेमकतानतां भेजुःप्रजास्तस्मिन् सुराजनि। योगक्षेमौ वितन्वाने मन्वानाः स्वां सनाथताम् ॥१७॥ यथास्वं संविभज्यामी सम्भुक्ता निधयोऽमुना। सम्भोगः संविभागश्च फलमर्थार्जने द्वयम् ॥१८॥ रत्नान्यपि यथाकामं निविष्टानि निधीशिना। रत्लानि नन तान्येव यानि यान्त्युपयोगिताम् ॥१६॥ मनुश्चक्रभतामाद्यः षट्खण्डभरताधिपः। राजराजोऽधिराट् सम्राजित्यस्योद्धोषितं यशः ॥ २० ॥ नन्दनो वृषभेशस्य भरतः शातमातुरः। इत्यस्य रोदसी व्याप शुभ्रा कीतिरनश्वरी ॥ २१॥ कीदक परिच्छदस्तस्य विभवश्चक्रवतिनः। इति 'प्रश्नवशादस्य विभवोद्देशकीर्तनम् ॥ २२ ॥ गलन्मदजलास्तस्य गजाः सुरगजोपमाः। लक्षाश्चतुरशीतिस्ते 'रदैर्बद्धैः सुकल्पितैः॥२३॥
सेवा कर रहे थे ॥११॥ हिमवान् और विजयाई पर्वतके अधीश्वर हिमवान् तथा विजयार्धदेव, मागध आदि अन्य अनेक देव, और उत्तर-दक्षिण श्रेणीके विद्याधर अपने मस्तक झका झुकाकर उन्हें नमस्कार कर रहे थे ॥१२॥ अनेक अन्छे अच्छे राजाओंके द्वारा अभिषिक्त होनेपर भी उन्हें कुछ भी अहंकार नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी मनोवृत्ति अहंकारका स्पर्श नहीं करती ॥१३॥ यद्यपि उनके ऊपर चमर ढुलाये जा रहे थे तथापि वे उससे संतोषको प्राप्त नहीं हए थे क्योंकि उन्हें निरन्तर इस बातका पछतावा हो रहा था कि मैंने अपनी विभूति भाइयोंकी नहीं बांट पाई ॥१४॥ भाई बाहुबलीके संघर्षसे उनका तेज कुछ कम नहीं हुआ था किन्तु कसौटीपर घिसे हुए सोनेके समान अधिक ही हो गया था ॥१५।। इस प्रकार निष्कण्टक राज्यको पाकर महाराज भरत उस सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहे थे जिसका कि प्रताप बढ़ रहा है और मण्डल अत्यन्त शुद्ध है ॥१६॥ योग (अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करना) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना) को फैलानेवाले उन उत्तम राजा भरतके विद्यमान रहते हुए प्रजा अपने आपको सनाथ समझती हुई कुशल मंगलको प्राप्त होती रहती थी ॥१७॥ महाराज भरतने निधियोंका यथायोग्य विभागकर उनका उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि स्वयं संभोग करना और दूसरेको विभाग कर देना ये दो ही धन कमानेके मुख्य फल हैं ॥१८॥ निधियोंके स्वामी भरतने रत्नोंका भी इच्छानुसार उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि वास्तवमें रत्न वही हैं जो उपयोगमें आवें ॥१९॥ यह सोलहवां मनु है, चक्रवर्तियोंमें प्रथम चक्रवर्ती है, षट् खण्ड भरतका स्वामी है, राजराजेश्वर है, अधिराट् है और समान है इस प्रकार उसका यश उद्घोषित हो रहा था ।।२०। यह भरत भगवान् वृषभदेवका पुत्र है और इसकी माताके सौ पुत्र हैं इस प्रकार इसकी कभी नष्ट नहीं होनेवाली उज्वल कीति आकाश तथा पृथिवीमें व्याप्त हो रही थी ॥२१॥ उस चक्रवर्तीका परिवार कितना था ? और विभूति कितनी थी ? राजा श्रेणिकके इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये गौतमस्वामी उसकी विभूतिका इस प्रकार वर्णन करने लगे ॥२२॥ महाराज भरतके, जिनके गण्डस्थलसे मदरूपी जल झर रहा है, और जो जड़े हुए सुसज्जित दांतोंसे सुशो
१ उत्सेकः अहङ्कारवान् । गर्वालिङगिनी । २ सुखम् । ३ अनुभुक्तानि । ४ श्रेणिप्रश्नषशात् । ५ रदैः उपलक्षिताः। ६ स्वर्णकटकखण्डैः ।
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