________________
। २१४
महापुराणम्
तपसोऽग्रेण चोग्रोग्रतपसा चातिकशितः। स दीप्ततपसाऽत्यन्तं दिदीपे'दीप्तिमानिव ॥१४६॥ सोऽतप्यत तपस्तप्तं तपो घोरं महच्च यत् । तथोत्तराण्यपि प्राप्तसमुत्कर्षाप्यनुक्रमात् ॥१५०॥ तपोभिरकृशेरेभिःस बभौ मुनिसत्तमः। घनोपरोधनिर्मुक्तः करैरिव गभस्तिमान् ॥१५॥ विक्रियाऽष्टतयी चित्रं प्रादुरासीत्तपोबलात् । 'विक्रियां निखिला हित्वा तीवमस्य तपस्यतः ॥१५२॥ प्राप्तौषधढेरस्यासीत् सन्निधिर्जगत हितः। 'ग्रामर्शवल जल्लाद्यः° प्राणिनामपकारिणः॥१५३॥ अना"शुषोऽपि तस्यासीद् ११रसद्धिः शक्तिमात्रतः। तपोबलसमुद्भता बद्धिरपि पप्रथे ॥१५४॥ अक्षीणावसथ:१३ सोऽभत्तथाऽक्षीण"महाशनः (नसः) सूते हि फलमक्षोणं तपोऽक्षणमुपासितम् ॥१५॥ निर्द्वन्द्ववृत्तिरध्यात्मम् इति निजित्य जित्वरः । ध्यानाभ्यासे मनश्चक्रे योगी योगविदां वरः ॥१५६।। क्षमामथोत्तमां भेजे परं मार्दवमार्जवम् । सत्यं शौचं तपस्त्यागावाकिञ्चन्यं च संयमम् ॥१५७॥ ब्रह्मचर्य च धर्म्यस्य ध्यानस्यता हि भावनाः। योग सिद्धौ परां सिद्धिम" प्रामनन्तीह योगिनः॥१५८॥
वे महामुनि उग्र, और महाउग्र तपसे अत्यन्त कृश हो गये थे तथा दीप्त नामक तपसे सूर्य के समान अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे ।।१४९।। उन्होंने तप्तघोर और महाघोर नामके तपश्चरण किये थे तथा इनके सिवाय उत्तर तप भी उनके खूब बढ़ गये थे ।।१५०॥ इन बड़े बड़े तपोंसे वे उत्तम मुनिराज ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघोंके आवरणसे निकला हुआ सूर्य ही अपनी किरणोंसे सुशोभित हो रहा हो ॥१५१।। यद्यपि वे मुनिराज समस्त प्रकारकी विक्रिया अर्थात् विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करते थे तथापि आश्चर्यकी बात है कि उनके तपके वलसे आठ प्रकारकी विक्रिया प्रकट हो गई थी। भावार्थ-रागद्वेष आदि विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करनेवाले उन बाहुबली महाराजक अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व यह आठ प्रकारकी विक्रिया ऋद्धि प्रकट हुई थीं ॥१५२।। जिन्हें अनेक प्रकारकी औषध ऋद्धि प्राप्त है और जो आमर्श, श्वेल तथा जल्ल आदिके द्वारा प्राणियोंका उपकार करते हैं ऐसे उन मनिराजकी समीपता जगतका कल्याण करनेवाली थी। भावार्थ-उनके समीप रहनेवाले लोगोंके समस्त रोग नष्ट हो जाते थे ।।१५३।। यद्यपि वे आहार नहीं लेते थे तथापि शक्ति मात्रसे ही उनके रसऋद्धि प्रकट हुई थी और तपश्चरणके बलसे प्रकट हुई उनकी बल ऋद्धि भी विस्तार पा रही थी। भावार्थ-भोजन करनेवाले मुनिराजके ही रसऋद्धिका उपयोग हो सकता है परन्तु वे भोजन नहीं करते थे इसलिये उनके शक्तिमात्र से रसऋद्धिका सद्भाव बतलाया है ॥१५४॥ व मुनिराज अक्षीणसंवास तथा अक्षीणमहानस ऋद्धिको भी धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि पूर्ण रीतिसे पालन किया हुआ तप अक्षीण फल उत्पन्न करता है ॥१५५॥ विकल्प रहित चित्तकी वृत्ति धारण करना ही अध्यात्म है ऐसा निश्चयकर योगके जाननेवालोंम श्रेष्ठ उन जितेन्द्रिय योगिराजने मनको जीतकर उसे ध्यानके अभ्यासम लगाया ॥१५६॥ उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम, उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये दश धर्मध्यानकी भावनाएं हैं। इस लोकमें योगकी सिद्धि होनेपर ही उत्कृष्ट सिद्धि -सफलता-मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ऐसा योगी लोग मानते हैं ॥१५७-१५८॥
१ कृशीकृतः । २ रविः । ३ मेघ। ४ तरणिः । ५ अष्टप्रकारा। ६ विकारम् । ७ तपः कुर्वतः । ८ दिः । ह निष्ठीवन । १० स्वेदोत्थमलायैः । ११ अनशनवतिनः । १२ अमतनवादि । १३ आलय। १४ महत् । १५ 'त०' पुस्तके 'महानसः' पाठः सुपाठः इति टिपणे लिखितम् । १६ अन्योन्यम् । १७ ध्याननिष्पन्ने सति । १८ मुक्तिम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org