________________
पञ्चत्रिंशत्तम पर्व
१८३
पराजोपहता लक्ष्मी यो वाञ्छत् पार्थिवोऽपि सन् । सोऽपार्थयति तामुक्तिं सर्पोक्तिमिव डुण्डभः ॥११३॥ परावमानमलिनां भूति' धत्ते न पोऽपि यः । नृपशोस्तस्य नन्वेष भारो राज्यपरिच्छदः ॥११४॥ मानभागाजित गैः यः प्राणान्धर्तुमीहते । तस्य भग्नरहस्येव द्विरदस्य कुतो भिदा ॥११५॥ छमभङगादिनाप्यस्य छायाभङगोऽभिलक्ष्यते । यो मानभङगाभारेण बिभयंपनतं शिरः॥११६॥ मनयोऽपि 'समानाश्चेत् त्यक्तभोगपरिच्छदाः । को नाम राज्यभोगार्थी पुमानुज्झेत् समानताम् ॥११७॥ बरं बनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञाविधेयता ॥११॥ मानवाभिरक्षन्तु धीराः प्राणः प्रणश्वरैः। नन्वलङकुरुते विश्वं शश्वन्मानाजितं यशः ॥११॥ ११चारु चक्रधरस्यायं त्वयाऽत्युक्तः पराक्रमः । कुतो यतोऽर्थवादोऽयं१३ स्तुतिनिन्दापरायणः ॥१२०॥ वचोलि: पोषयन्त्येव पण्डिताः परिफलवपि प्रक्रान्तायां स्तुताविष्टः सिंहो ग्राममृगो ननु ॥१२१॥ इदं वाचनिकं कृत्स्नं त्वदुक्तं प्रतिभाति नः । क्वास्य दिग्विजयारम्भः क्व धनोंच्छन चुञ्चुता ॥१२२॥
-- - प्रशंसनीय नहीं है ।।११२।। जिस प्रकार पनया साँप 'सर्प' इस शब्दको व्यर्थ ही धारण करता है उसी प्रकार जो मनुष्य राजा होकर भी दूसरेकी आज्ञासे उपहृत हुई लक्ष्मीको धारण करता है वह 'राजा' इस शब्दको व्यर्थ ही धारण करता है ॥११३॥ जो पुरुष राजा होकर भी दूसरे के आगमानसे मलिन हुई विभूतिको धारण करता है निश्चयसे उस मनुष्यरूपी पशके लिये यह राज्यकी समस्त सामग्री भारके समान है ॥११४॥ जिसके दाँत टूट गये हैं ऐसे हाथीके समान जो पुरुष मानभग होनपर प्राप्त हुए भोगोपभोगोंसे प्राण धारण करना चाहता है उस पुरुषमें और पशम भेद कैसे हो सकता है ? ॥११५॥ जो राजा मानभंगके भारसे झके हए शिरको धारण करता है उसकी छायाका नाश छत्रभंग होनेके बिना ही हो जाता है। भावार्थयहाँ छाया शब्दके दो अर्थ हैं अनातप और कान्ति । जब छत्रभंग होता है तभी छाया अर्थात् अनातप का नाश होता है परन्तु यहांपर छत्रभंगके बिना ही छायाके नाशका वर्णन किया गया है इसलिये विरोध मालूम होता है परन्तु छत्र भंगके बिना ही उनकी छाया अर्थात् कान्तिका नाश हो जाता है, ऐसा अर्थ करनेसे उसका परिहार हो जाता है ।।११६।। जिन्होंने भोगोपभोग की सब सामग्री छोड़ दी है ऐसे मुनि भी जब अभिमान (आत्मगौरव) से सहित होते हैं तब फिर राज्य भोगनेकी इच्छा करनेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा जो अभिमानको छोड़ देगा ? ॥११७।। वनमें निवास करना अच्छा है और प्राणोंको छोड़ देना भी अच्छा है किन्तु अपने कुलका अभिमान रखनेवाले पुरुषको दूसरेकी आज्ञाके आधीन रहना अच्छा नहीं है ।।११८॥ धीर वीर पुरुषोंको चाहिये कि वे इन नश्वर प्राणोंके द्वारा अभिमानकी ही रक्षा करें क्योंकि अभिमान के शाा कमाया हुआ यश इस संसारको सदा सुशोभित करता रहता है !!११९।। तूने जो बहुत कुछ बढ़ाकर चक्रवर्तीके पराक्रमका वर्णन किया है सो ठीक है क्योंकि तेरा यह सब कहना स्तुति निन्दा में तत्पर है अर्थात् स्तुतिरूप होकर भी निन्दाको सूचित करने वाला है ॥१२०।। पण्डित लोग निःसार वस्तुको भी अपने वचनोंसे पुष्ट किया ही करते हैं सो ठीक ही है क्योंकि स्तुति प्रारम्भ करनेपर कुत्तेको भी सिंह कहना पड़ता है ॥१२१॥ हे दूत, तेरे द्वारा कहा
१ अपगतार्थ करोति । २ पार्थिवास्याम् । ३ राजिलः । 'समौ राजिलडुण्डभौ" इत्यभिधानात् । ४ सम्पदम् । ५ मनुजानडुहः । ६ भेदः । ७ तेजोहानिः । ८ अभिमानान्विताः । ६ साभिमानिताम् । १० अधीनता। ११ वर ल०, द., अ०, ५०, स०, इ०। १२ अतिक्रम्योक्तः । १३ सत्यवादः अथवा असत्यारोपमर्थवादः । १४ स्तुतिरूपोऽर्थवादो निन्दारूपोऽर्थवादश्चेति द्वये तत्परः । १५ अतिनि:स्सारवस्त्वपि । १६ प्रारम्भितायां सत्याम् । १७ सारमेयः । १८ धनापनयन ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org