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महापुराणम् अडसाद' मतिभब वाचामस्फुटतामपि । जरा सुरा च निविष्टा घटयत्याशु देहिनाम ॥७॥ कालव्यालगजेनेदमायुरालानक बलात् । चाल्यते यदलाधानं जीवितालम्बनं नृणाम् ॥८॥ शरीरबलमेतच्च गजकर्णवदस्थिरम् । रोगा खूपहतं चेदं "जरद्देहकुटीरकम् ॥८६॥ इत्यशाश्वतमप्येतद् राज्यादि भरतेश्वरः । शाश्वतं मन्यते कष्टं मोहोपहतचेतनः ॥१०॥ चिरमाकलयनेवम् अग्रजस्यानुदात्तताम् । व्याजहारनमुद्दिश्य गिरः प्रपरुषाक्षराः ॥१॥ शणु भो नपशार्दुल क्षणं "लक्ष्यमुत्सृज । मुह्यतेदं त्वयाऽलम्बि दुरोहमतिसाहसम् ॥१२॥ अभेद्ये मम देहाद्रौ त्वया चक्रं नियोजितम् । विद्धयकिञ्चित्कर वाज शैले वमिवापतत् ॥१३॥ अन्यत्र भातृभाण्डानि भडक्त्वा राज्यं यदीप्सितम् । त्वया धर्मो यशश्चैव० तेन एपेशलजितम् ॥१४॥ चक्रभृद्भरतः स्पष्टुः सूनुः आद्यस्य योऽग्रणीः । कुलस्योद्धारकः सोऽभूदितो डाऽस्थापि च त्वया ॥६५॥ जितां च भवतवाद्य यत्पापोपहतामिमाम् । मन्यसेऽनन्यभोगीना" नपश्रियमनश्वरीम ॥६६॥
प्रेयसीयं तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयाऽदृता । नोचितैषा ममायुष्मन् बन्धो न हि सतां भुदे ॥६॥ पर पटक देता है उसी प्रकार बुढापा भी जबर्दस्ती जमीनपर पटक देता है और जिस प्रकार शीतज्वर शरीरमें कम्पन पैदा कर देता है उसी प्रकार बुढापा भी शरीर में कम्पन पैदा कर देता है ।।८६।। शरीरमें प्रविष्ट हुई तथा उपभोगमें आई हुई जरा और मदिरा दोनों ही लोगोंके शरीरको शिथिल कर देती हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर देती हैं और वचनोंमें अस्पष्टता ला देती हैं ॥८७॥ जिसके बलका सहारा मनुष्यों के जीवनका आलम्बन है ऐसा यह आयुरूपी खंभा कालरूपी दुष्ट हाथीके द्वारा जबर्दस्ती उखाड़ दिया जाता है ॥८८॥ यह शरीरका बल हाथीके कानके समान चंचल है और यह जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी झोंपड़ा रोगरूपी चुहोंके द्वारा नष्ट किया हुआ है ॥८९॥ इस प्रकार यह राज्यादि सब विनश्वर हैं फिर भी मोहके उदयसे जिसकी चेतना नष्ट हो गई है ऐसा भरत इन्हें नित्य मानता है यह कितने दुःवकी बात है ? ॥९०॥ इस प्रकार बड़े भाई की नीचताका चिरकाल तक विचार करते हुए बाहुबलीने भरतको उद्देश्य कर नीचे लिखे अनुसार कठोर अक्षरोंवाली वाणी कही ।।९।। हे राजाओंमें श्रेष्ठ, क्षणभरके लिये अपनी लज्जा या भैग छोड़, मैं कहता हसो सुन । तुने मोहित होकर ही इस न करने योग्य बड़े भारी साहसका सहारा लिया है ॥१२॥ जो कभी भिद नहीं सकता। ऐसे मेरे शरीररूपी पर्वतपर तूने चक्र चलाया है सो तेरा यह चक्र वजूके बने हुए पर्वतपर पड़ते हुए वजूके समान व्यर्थ है ऐसा निश्चयसे समझ ।।९३।। दूसरी बात यह है कि जो तंने भाइयोंकी सामग्री नष्ट कर राज्य प्राप्त करना चाहा है सो उसरो तुने बहुत ही अच्छा
यशका उपार्जन किया है ॥१४॥ तुने अपनी यह स्तुति भी स्थापित कर दी कि चक्रवर्ती भरत आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवका ज्येष्ठ पुत्र था तथा वह अपने कुलका उद्धारक हुआ था ॥९५।। हे भरत, आज तूने जिसे जीता है और जो पापसे भरी हुई है ऐसी इस राज्यलक्ष्मीको तू एक अपने ही द्वारा उपभोग करने योग्य तथा अविनाशी समझता है ।।९६।। जिसका तूने आदर किया है ऐसी यह राज्यलक्ष्मी अब तुझे ही प्रिय रहे, हे आयुप्मन्, अब यह मेरे योग्य नहीं है क्योंकि बन्धन सज्जन पुरुषोंके आनन्दके लिये नहीं होता है । भावार्थ-यह लक्ष्मी स्वयं एक प्रकारका बन्धन है अथवा कर्म बन्धका कारण हैं इसलिय सज्जन पुरुष इस
१ श्रमम् । २ भूशम् । ३ अनुभुक्तः । ४ मूषिक। ५ जीर्ण। ६ निकृष्टताम् । ७ विस्मयावित्वम् । ८ मुहयतीति मुहयन् तेन । न किञ्चित्कृत । किमपि कर्तमसमर्थ इत्यर्थः । १० राज्याभिलाषण । ११ प्रशस्तम् । १२ स्तुति । १३ यस्मात् कारणात् । १४ अनन्यभोगायिताम् । १५ बन्धकारणपरिग्रहः ।
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