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महापुराणम्
कृतं कृतं बतानेन साहसेनेति धिक्कृतः। तदा महत्तमश्चक्री जगामानशयं परम् ॥६७॥ (कृतापदान इत्युच्चैः करेण तुलयन्नुपम् । सोऽवतीर्यांशतों धीरोऽनिकृष्टां भूमिमापिपत् ॥६॥ सत्कृतः स जयाशंसम् अभ्यत्य न पसत्तमैः । मेने सोत्कर्षमात्मानं तदा भुजबली प्रभुः ॥६६॥ अचिन्तयच्च किन्नाम कृते राज्यस्य भङगिनः । लज्जाकरो विधिर्भात्रा ज्येष्ठेनायमन ष्ठितः ॥७०॥ "विपाककटुसाम्राज्यं क्षणध्वंसि धिगस्त्विदम् । दुस्त्यजं त्यजदप्येतद् अङगिभिर्दुष्कलत्रवत् ॥७१) अहो विषयसौख्यानां वैरूप्यमापकारिता। भडग रत्वमरुच्यत्वं सक्तैर्नान्विष्यते" जनैः ॥७२॥ को नाम मतिमानीप्सेद् विषयान् वेषदारुणान् । येषां वशगतो जन्तुः यात्यनर्थपरम्पराम् ॥७३॥ वरं विषं यदेकस्मिन् भवे हन्ति न हन्ति वा । विषयास्तु पुनर्नन्ति हन्त जन्तूननन्तशः ॥७४॥ आपातमात्र"रम्याणां विपाककटुकात्मनाम् । विषयाणां कृते नाज्ञो" यात्यनानपार्थकम् ॥७॥
परन्तु उनके अवध्य होनेसे वह उनकी प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हींके पास जा ठहरा । भावार्थ-देवोपनीत शस्त्र कुटुम्बके लोगोंपर सफल नहीं होते, बाहबली भरतेश्वरके एक पितक भाई थे इसलिये भरतका चक्र बाहुबलीपर सफल नहीं हो सका, उसका तेज फीका पड़ गया और वह प्रदक्षिणा देकर बाहुबलीके समीप ही ठहर गया ।।६६। उस समय बड़े बड़े राजाओंने चक्रवर्तीको धिक्कार दिया और दुःखके साथ कहा कि 'बस बस' 'यह साहस रहने दो'-बन्द करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संतापको प्राप्त हुए ॥६७।। आपने खूब पराक्रम दिखाया, इस प्रकार उच्च स्वरसे कहकर धीर वीर बाहबलीने पहले तो भरतराजको हाथोंसे तोला और फिर कन्धसे उतारकर नीच जमीनपर रख दिया अथवा (धीरो अनिकृष्टां एस पदच्छे द करनेपर) उच्च स्थानपर विराजमान किया ॥६८।। अनेक अच्छे अच्छे राजाओंने समीप आकर महाराज बाहुबलीके विजयकी प्रशंसा करते हए उनका सत्कार किया और बाहुबलीने भी उस समय अपने आपको उत्कृष्ट अनुभव किया ।।६९। साथ ही साथ वे यह भी चिन्तवन करने लगे कि देखो, हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर राज्य के लिये यह कैसा लज्जाजनक कार्य किया है ।।७०।। यह सामाज्य फलकालमें बहुत दुख देनेवाला है, और क्षणभंगुर है इसलिये इसे धिक्कार हो, यह व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चली जाती है उसी प्रकार यह सामाज्य भी एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चला जाता है। यह राज्य प्राणियोंको छोड़ देता है परन्तु अविवेकी प्राणी इसे नहीं छोड़ते यह दुःखकी बात है ॥७१॥ अहा, विषयोंमें आसक्त हुए पुरुष, इन विषयजनित सुखोंका निन्द्यपना, अपकार, क्षणभंगुरता और नीरसपने को कभी नहीं सोचते हैं ।।७२।। जिनके वशमें पड़े हुए प्राणी अनेक दुःखोंकी परम्पराको प्राप्त होते हैं ऐसे विष के समान भयंकर विषयोंको कौन बुद्धिमान् पुरुष प्राप्त करना चाहेगा ? ॥७३॥ विष खा लेना कहीं अच्छा है क्योंकि वह एक ही भवमें प्राणीको मारता है अथवा नहीं भी मारता है परन्तु विषय सेवन करना अच्छा नहीं है क्योंकि ये विषय प्राणियोंको अनन्तबार फिर फिरसे मारते हैं ।।७४।। जो प्रारम्भ काल में तो मनोहर मालूम होते हैं परन्तु फलकाल---------
१ अलमलम् । २ पश्चात्तापम् । ३ कृतपरात्रमस्त्वमिति । कृतोपादान-अ०, ल० । ४ भुजनिखरात् । 'स्कन्धो भुजशिरोंऽसोऽस्त्री' इत्यभिधानात् । -तीसितो-ल० । ५ अवस्थाम् । ६-मापपत प०, ल० । ७ निमित्तम् । ८ विनश्वरस्य । -मधिष्ठितः प०, ल० । १० परिणमन। ११ कुत्मितत्वम् । १२ विनश्वरत्वम् । १३ आसक्तैः। १४ न म ग्यते। न विचार्यत इत्यर्थः । १५ अनुभवनकाल । १६ निमित्तम् । १७ पुमान् ।
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