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ट्त्रिंशत्तम पर्व
२११ नास्यासीत् स्त्रीकृता बाधा भोगनिवेदमायुषः । शरीरमशुचि स्त्रैणं पश्यतश्चर्मपुत्रिकाम् ॥११६॥ स्थितश्चर्या निषद्यां च शय्यां चासोढ हेलया । मनसाऽनभिसन्धित्सन्नुपानच्छयनासनम् ॥१२०॥ स सेहे वधमाकोश परमार्थविदां वरः। शरीरके स्वयं त्याज्य निःस्पृहोऽनभिनन्दथः ॥१२१॥ 'याचित्रियेण नास्पष्टा विष्वाणेन तनस्थितिः । तेन वाचंयमो भूत्वा याञ्चाबाधामसोढ सः॥१२२॥ जल्लं मलं तणस्पर्श सोऽसोढो ढोत्तमक्षमः। व्युत्सृष्टतनुसंस्कारो निविशेषसुखासुखः११ ॥१२३॥ रोगस्यायतनं२ देहम् प्राध्यायन्१३ धीरधीरसौ। विविधातडकजा बाधां सहते स्म सुदुःसहाम् ॥१२४॥ प्रज्ञा परिषहं प्राज्ञो ज्ञानजं गर्वमुत्सृजन् । आसर्वशं तदुत्कर्षात् स ससाह"ससाहसः ॥१२॥ स सत्कारपुरस्कारे नासीज्जातु समुत्सुकः । पुरस्कृतो मुदं नागात् सत्कृतो न स्म तुष्यति ॥१२६॥ परीषहमलाभं च सन्तुष्टो जयति स्म सः। अज्ञानादर्शनोद्भूता बाधासीन्नास्य योगिनः ॥१२७॥
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की इच्छा न रखनेवाले पुरुषको रति तथा अरतिकी बाधा नहीं होती ॥११८॥ भोगोंस विरक्त हुए तथा स्त्रियों के अपवित्र शरीरको चमड़ेकी पुतलीके समान देखते हुए उन बाहुबली महाराजको स्त्रियों के द्वारा की हुई कोई बाधा नहीं हुई थी अर्थात् वे अच्छी तरह स्त्रीपरिषह सहन करते थे ॥११९॥ वे हमेशा खड़े रहते थे और जूता तथा शयन आसन आदिकी मनसे भी इच्छा नहीं करते थे इसलिये उन्होंने चर्या, निषद्या और शय्या परिषहको लीला मात्रमें ही जीत लिया था ॥१२०॥ जो स्वयं नष्ट हो जानेवाले शरीरमें निःस्पृह रहते हैं और न उसमें कोई आनन्द ही मानते हैं ऐसे परमार्थ के जाननेवालोंम श्रेष्ठ बाहुबलो महाराज बध और आक्रोश परिषहको भी सहन करते थे ॥१२१॥ याचनासे प्राप्त हुए भोजनके द्वारा शरीरकी स्थिति रखना उन्हें इष्ट नहीं था इसलिये वे मौन रहकर याचना परिषहकी बाधाको सहन करते थे ॥१२२।। जिन्होंने उत्तम क्षमा धारण की है, शरीरका संस्कार छोड़ दिया है और जिन्हें सख तथा दुःख दोनों ही समान हैं ऐसे उन मनिराजने स्वेद मल तथा तण स्पर्श परिषहको भी सहन किया था ॥१२३।। 'यह शरीर रोगोंका घर है' इस प्रकार चिन्तवन करते ही व धीरवीर बद्धिके धारक बाहबली बड़ी कठिनतासे सहन करने के योग्य उत्पन्न हुई बाधाको भी सहन करते थे ॥१२४॥ ज्ञानका उत्कर्ष सर्वज्ञ होने तक है अर्थात् जबतक सर्वज्ञ न हो जावे तबतक ज्ञान घटता बढ़ता रहता है इसलिये ज्ञानसे उत्पन्न हुए अहंकारका त्याग करते हुए अतिशय बुद्धिमान और साहसी वे मुनिराज प्रज्ञा परिषहको सहन करते थे। भावार्थ केवलज्ञान होनेके पहले सभीका ज्ञान अपूर्ण रहता है ऐसा विचार कर वे कभी ज्ञानका गर्व नहीं करते थे ॥१२५॥ वे अपने सत्कार पुरस्कारमें कभी उत्कण्ठित नहीं होते थे। यदि किसीने उन्हें अपने कार्य में अगुआ बनाया तो वे हर्षित नहीं होते थे और किसीने उनका सत्कार किया तो संतुष्ट नहीं होते थे। भावार्थ-अपने कार्य में किसीको अगुआ बनाना पुरस्कार कहलाता है तथा स्वयं आये हुएका सम्मान करना सत्कार कहलाता है वे मुनिराज सत्कार पुरस्कार दोनोंम ही निरुत्सुक रहते थे-उन्होंने सत्कार पुरस्कार परिषह अच्छी तरह सहन किया था ।।१२६॥ सदा सन्तुष्ट रहनेवाले बाहबलीजीने अलाभ परिषहको जीता था तथा अज्ञान और अदर्शनसे उत्पन्न होनेवाली बाधाएं भी उन मुनिराजको नहीं हुई थीं ॥१२७।।
१ निवंदं गतस्य । -मीयुषः प०, इ०, द० । २ स्त्रीसम्बन्धि । ३ अभिसंधानमकुर्वन् । ४ पादत्राणः । 'पादुरुपानत् स्वी' इत्यभिधानात् । ५ आनन्दरहितः । ६ याचनया निवृत्तेन । ७ भोजनेन । ८ तेन कारणेन। ६ मौनी भूत्वा । १० धृतः। ११ समानसुखदुःखः । १२ गृहम् । १३ स्मरन् । १४ ज्ञानोत्कर्षात् । उपर्युपरि केवलज्ञानादित्यर्थः । १५ राहते स्म ।
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