________________
पट्त्रिंशत्तमं पर्व
एवं प्रायेजनालापैः महीनाथा विनोदिताः । द्रुतं प्रापुस्तमुद्देशं यत्र वीराग्रणीरसौ ॥ ३४ ॥ दोदपं विगणय्यास्य दुर्विलङ्घयमरातिभिः । त्रेसुः प्रतिभटाः प्रायः 'तस्मिन्नासन्नसन्निधौ ॥३५॥ इत्यभ्यर्णे बले जिष्णोः " बलं भुजबलीशिनः । जलमब्धेरिवाक्षुभ्यद् वीरध्वाननिरुद्धदिक् ॥ ३६ ॥ प्रयोभयबल धीराः सन्नद्धगजवाजयः । बलान्यारचयामासुः अन्योऽन्यं प्रयुयुत्सया ॥३७॥ ( तावच्च मन्त्रिणो मुख्याः सम्प्रधार्यावदन्निति । शान्तये नैनयोर्युद्ध" ग्रहयोः क्रूरयोरिव ||३८|| 'चरमागन्धरावेतौ नानयोः काचन क्षतिः । क्षयो जनस्य पक्षस्य र व्याजेनानेन जृम्भितः ॥३६॥ इति निश्चित्य मन्त्रज्ञा भीत्वा भूयो जनक्षयात् । तयोरनुमतिं लब्ध्वा धर्म्यं रणमघोषयन् ॥४०॥ कारणरणेनालं जनसंहारकारिणा । महानेव "मधर्मश्व गरीयांश्च यशोवधः ॥४१॥ बलोत्कर्ष परीक्षेयम् अन्यथाऽप्युपपद्यते । तदस्तु युवयोरेव मिथो युद्धं त्रिधात्मकम् ॥४२॥ भ्रूभङगेन" विना भङ्गः सोढव्यो युवयोरिह । विजयश्च विनोत्सेकात्" धर्मो ह्येष सनाभिषु ॥ ४३ ॥ ५ इत्युक्तt पार्थिवः सर्वः सोपरोधश्च मन्त्रिभिः । तौ कृच्छ्रात् प्रत्यपत्सातां तादृशं युद्धमुद्धतौ ॥४४॥
और कितने ही पक्षपातसे प्रेरित होकर अपने ही पक्षकी प्रशंसा कर रहे थे ||३३|| प्राय : लोगों के इसी प्रकारके वचनोंसे मन बहलाते हुए राजा लोग शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुंचे जहां वीर शिरोमणि कुमार बाहुबली पहले से विराजमान था || ३४|| बाहुबली के समीप पहुंचते ही भरत के योद्धा, जिसका शत्रु कभी उल्लंघन नहीं कर सकते ऐसा बाहुबलीकी भुजाओंका दर्प देखकर प्रायः कुछ डर गये ।। ३५ ।। इस प्रकार चक्रवर्ती भरतकी सेनाके समीप पहुँचनेपर वीरोंके शब्दोंसे दिशाओं को भरनेवाली बाहुबलीकी सेना समुद्रके जलके समान क्षोभको प्राप्त हुई ||३६||
२०३
अथानन्तर - दोनों ही सेनाओं में जो शूरवीर लोग वे परस्पर युद्ध करनेकी इच्छासे अपने हाथी घोड़े आदि सजाकर सेनाकी रचना करने लगे- अनेक प्रकारके व्यूह आदि बनाने लगे ||३७|| इतने ही दोनों ओरके मुख्य मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्तिके लिये नहीं है ||३८|| क्योंकि ये दोनों ही चरम शरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्धके बहाने से दोनों ही पक्षके लोगोंका क्षय होगा ||३९|| इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्योंके संहारसे डरकर मंत्रियोंने दोनोंकी आज्ञा लेकर धर्मयुद्ध करनेकी घोषणा कर दी ||४०|| उन्होंने कहा कि मनुष्यों का संहार करनेवाले इस कारणहीन युद्धसे कोई लाभ नहीं है क्योंकि इसके करनेसे बड़ा भारी अधर्म होगा और यशका भी बहुत विघात होगा ||४१ ॥ | यह बलके उत्कर्षकी परीक्षा अन्य प्रकार से भी हो सकती है इसलिये तुम दोनोंका ही परस्पर तीन प्रकारका युद्ध हो ॥४२॥ इस युद्ध में जो पराजय हो वह तुम दोनोको भौंहके चढ़ाये बिना ही सरलतासे सहन कर लेना चाहिये तथा जो विजय हो वह भी अहंकारके बिना तुम दोनोंको सहन करना चाहिये क्योंकि भाई भाइयों का यही धर्म है ||४३|| इस प्रकार जब समस्त राजाओं और मंत्रियोंने बड़े आग्रहके साथ कहा तब कहीं बड़ी कठिनतासे उद्धत हुए उन दोनों भाइयोंने वैसा युद्ध करना स्वीकार
१ एवमाद्यैः । २ प्राप्ता ल०, प० द० । ३ भुजबली स्थितः । ४ विचार्य । ५ बाहुबलिनि । ६ अत्यासन्ने सति । ७ भरतस्य । ८ वीराः ल० द० अ०, प०, स०, इ० । ६ वाजिनः अ०, स०, द० । १० प्रकर्षेण योद्धुमिच्छया । ११ नावयो- ल० । १२ सहायस्य । १४ एवं सति । युद्धे सतीत्यर्थः । १५ कीर्तिनाश: । १६ घटते इत्यर्थः । १८ क्रोधाभावेनेत्यर्थः । १६ गर्वाभावादित्यर्थः । २० अनुमेनाते ।
१३ युद्धच्छलेन । १७ तत् कारणात् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org