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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व ततान्धतमसे लोके जनरुन्मीलितेक्षणः। नादृश्यत पुरः किञ्चित् मिथ्यात्वेनेव दूषितः ॥१७॥ प्रसह्य तमसा रुद्धो लोकोऽन्ताकुलीभवन् । दृष्टिवैफल्य दृष्टेर्नु बहु मेने शयालुताम् ॥१७२॥ दीपिका रचिता रेजुः प्रतिवेश्म स्फुरत्त्विषः । 'घनान्धतमसोभेदे प्रकलप्ता इव सूचिकाः ॥१७३॥ तमो विधूय दूरेण जगदानन्दिभिः करैः। उदियाय शशी लोकं क्षीरेण क्षालयन्निव ॥१७४॥ प्रखण्डमनुरागेण निजं मण्डलमुद्वहन् । सुराजेव कृतानन्दम् उदगाद् विधुरत्करः ॥१७॥ दृष्ट्वेवाकृष्टहरिणं हरि हरिणलाञ्छनम् । तिमिरौघः प्रदुद्राव करियूथसदृग् महान् ॥१७६॥ तततारावली रेज ज्योत्स्नापूरः सुधाछवः । सबुबुद इवाकाशसिन्धोरोधः परिक्षरन् ॥१७७॥ हंसपोत इवान्विच्छन् शशी तिमिरशैवलम् । तारा सहचरीकान्तं विजगाहे नभःसरः ॥१७८॥ तमो निःशेषमुद्धय जगदाप्लावयन् करैः। प्रालेयांशस्तदा विश्वं सुधामयमिवातनोत् ॥१७६॥ तमो दूरं विधूयाऽपि विधुरासीत् कलङकवान् । निसर्गजं तमो नूनं महताऽपि सुदुस्त्यजम् ॥१८०॥
थी मानो नील वस्त्र पहिने हुई और चमकीले मोतियोंके आभूषण धारण किये हुई कोई अभिसारिणी स्त्री ही हो ॥१७०॥ जिस प्रकार मिथ्या दर्शनसे दूषित पुरुषोंको कुछ भी दिखाई नहीं देता-पदार्थके स्वरूपका ठीक ठीक ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार गाढ अन्धकारसे भरे हुए लोकमें पुरुषोंको आंख खोलनेपर भी सामनेकी कुछ भी वस्तु दिखाई नहीं देती थी ॥१७१।। जबर्दस्ती अन्धकारसे घिरे हुए लोग भीतर ही भीतर व्याकुल हो रहे थे और उनकी दृष्टि भी कुछ काम नहीं देती थी इसलिये उन्होंने सोना ही अच्छा समझा था ॥१७२।। घर घर में लगाये हुए प्रकाशमान दीपक ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो अत्यन्त गाढ़ अन्धकारको भेदन करने के लिये बहुत सी सुइयां ही तैयार की गई हों ॥१७३॥ इतने ही में जगत्को आनन्दित करनेवाली किरणोंसे अन्धकारको दूरसे ही नष्ट कर चन्द्रमा इस प्रकार उदय हुआ मानो लोकको दूधसे नहला ही रहा हो ॥१७४॥ वह चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान संसारको आनन्दित करता हुआ उदय हुआ था, क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा अनुराग अर्थात् प्रेमसे अपने अखण्ड (संपूर्ण) मण्डल अर्थात् देशको धारण करता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी अनुराग अर्थात् लालिमासे अपने अखण्डमण्डल अर्थात् प्रतिबिम्बको धारण कर रहा था और उत्तम राजा जिस प्रकार चारों ओर अपना कर अर्थात् टैक्स फैलाता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी चारों ओर अपने कर अर्थात् किरणें फैला रहा था ॥१७५॥ हरिणके चिह्न वाले चन्द्रमाको देखकर अन्धकारका समूह बड़ा होनेपर भी इस प्रकार भाग गया था जिस प्रकार कि हरिणको पकड़े हुए सिंहको देखकर हाथियोंका बड़ा भारी झुण्ड भाग जाता है । ।।१७६।। जिसमें ताराओंकी पङक्ति फैली हुई है ऐसा चन्द्रमाकी चांदनीका समूह उस समय ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो बुबुदों सहित ऊपरसे पड़ता हुआ आकाशरूपी समुद्रका प्रवाह ही हो।।१७७॥ हंसके बच्चे के समान वह चन्द्रमा अन्धकाररूपी शैवालको खोजता हआ तारे रूपी हंसियोंसे भरे हुए आकाशरूपी सरोवरमें अवगाहन कर रहा था-इधर-उधर घूम रहा था ॥१७८।। समस्त अन्धकारको नष्ट कर जगत्को किरणोंसे भरते हुए चन्द्रमाने उस समय यह समस्त संसार अमृतमय बना दिया था ॥१७९॥ अन्धकारको दूर करके भी वह चन्द्रमा कलंकी बन रहा था सो ठीक ही है क्योंकि स्वाभाविक अन्धकार बड़े पुरुषोंसे छुटना
१ हठात् । २ नेत्रविफलत्वदर्शनात् । ३ शयनशीलताम् । ४ धनावतमसोद्देदे ट० । निविडान्धकारभेदने । ५ कृताः । ६ इवान्विष्टान् ल०, द०, प० । ७ विवेश ।
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