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पञ्चत्रिंशत्तम पर्व
११७ जयति जयविलासः स च्यते यस्य पौष्पैः
अलिकलतरुगनिजितानडगमुक्तः । सादगमस्त्रैर्भङगशोकादिवावि
कृतकरुणनिनादैः सोऽयमाद्यो जिनेन्द्रः ॥२३६॥ जयति जितमनोभरिधामा स्वयम्भः
जिनपतिरपरागः क्षालितागः परागः । सुरमुटविटडाकोदूढ पादाम्बुजश्री:
जगद जगदगारप्रान्तविश्रान्तबोधः ॥२४०।। जयति मदनबाण रक्षतात्मापि योऽधात
त्रिभ वनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे। स्वयमवत च मुक्तिप्रेयसी यं विरूपा
प्यनवम सुखताति तन्वती सोऽयमहन् ॥२४१॥ जयति समरभेरीभैरवारावभीम
बलमरचि न कूजच्चण्डकोदण्डकाण्डम् । भ्र कटिकटिलमास्यं येन नाकारि वोच्चैः
मनसिजरिपुघाते सोऽयमाद्यो जिनेशः ॥२४२॥ स जयति जिनराजो दुविभाव प्रभावः
प्रभुरभिभवितुं यं नाशकन्मारवीरः । दिविजविजयदुरा रूढगर्वोऽपि गर्व
न हृदि हृदिक्षयोऽधाद् यत्र३ १"कुण्ठास्त्रवीर्यः ॥२४३॥ रहे हैं ऐसे श्री अर्हन्तदेव सदा जयवन्त रहें ॥२३८॥ जिनके भीतर भमरोंके समह गंजार कर रहे हैं और उनसे जो ऐसे मालूम होते हैं मानो अपनी पराजयके शोकसे रोते हुए कामदेवके करुण कन्दनको ही प्रकट कर रहे हों तथा उसी हारे हुए कामदेवने अपने पुष्परूपी शस्त्र भगवान्के चरण-युगल के सामने डाल रक्खे हों ऐसे पुष्पोंके समूहसे जिनके विजयकी लीला सूचित होती है वे प्रथन जिनेन्द्र श्री वृषभदेव जयवन्त हों ।।२३९॥ जिन्होंने कामदेवको जीत लिया है, जिनका तेज अपार है, जो स्वयंभू हैं, जिनपति हैं, वीतराग हैं, जिन्होंने पाप रूपी धूलि धो डाली है, जिनके चरणकमलोंकी शोभा देव लोगोंने अपने मुकुटके अग्रभागपर धारण कर रक्खी है और जिनका ज्ञान लोक अलोक रूपी घरके अन्त तक फैला हुआ है ऐसे श्री प्रथम जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ॥२४०। जिनकी आत्मा कामदेवके बाणोंसे घायल नहीं हुई है तथापि जिन्होंने तीनों लोकोंकी जयलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अपने वक्षःस्थलपर धारण किया है और मुक्तिरूपी स्त्रीने जिन्हें स्वयं वर बनाया इसके सिवाय वह मुक्तिरूपी स्त्री विरूपा अर्थात कुरूपा (पक्षमें आकाररहित) होकर भी जिनके लिये उत्कृष्ट सख-समहको बढ़ा रही है वे अर्हन्तदेव सदा जयवन्त हों ।।२४१॥ जिन्होंने जगद्विजयी कामदेवरूपी शत्रुको नष्ट करने के लिये न तो युद्धके नगाड़ोंके भयंकर शब्दोंसे भीषण तथा शब्द करते हुए धनुषोंसे यक्त सेना ही रची और न अपना मह ही भौंहोंसे टेढा किया वे प्रथम जिनेन्द्र भगवान वषभदेव सदा जयवन्त रहें ।।२४२।। जो सब जगत्के स्वामी हैं, कामदेवरूपी योद्धा भी जिन्हें जीतने
१ पदयुगसमीपे । २ बलतेजाः । ३ अपगतरागः । ४ वलभ्या धृत । ५ लोकालोकालयप्रान्त । ६ धारयति स्म । ७ अमूर्तापि, कुरूपापीति ध्वनिः । ८ अप्रमितसुखपरम्पराम् । ६ जिनेन्द्रः ल०, द०। १० अचिन्त्य । ११ समर्थी ना भूत् । १२ अत्यर्थ । १३ सर्वज्ञे । १४ मन्द । 'कुण्ठो मन्दः क्रियासु च' इत्यभिधानात् ।
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