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महापुराणम् कमलमलिनी नालं' वेष्ट बत प्रविकस्वरं
गतमरुणतां बालार्कस्य प्रसारिभिरंशभिः । परिगत मिवर प्रादुष्यद्भिः कणैरनिलाचिषां
नियतविपदं धिग् व्यामूर्हि थियेकपराडमुखीम् ॥२३५॥ उपनततरूनाधुन्वाना विलोलितषट्पदाः
कृतपरिचया वीचीचकैः सरस्सु सरोरुहाम् । "रतिपरिमलानाकर्षन्तः सरोजरजो जडाः'
प्रतिदिशममी मन्दं वान्ति प्रगेतनमारुताः ॥२३६॥
कृतपा
मालिनीच्छन्दः न पवर जिनभर्तुर्मङगलरेभिरिष्टः
. प्रकटितजयघोषस्त्वं विबुध्यस्व भूयः । भवति निखिलविघ्नप्रप्रशान्तिर्यतस्ते
रणशिरसि जयश्रीकामिनी कामुकस्य ॥२३७।। जयति दिदिजनाथैः प्राप्तपूर्जाद्धरहन्
धुतदुरितपरागो वीतरागोऽपरागः । कृतनतिशतयज्व' प्रज्वलन्यौलिरत्न
"च्छरितरुचिररोचिर्मञ्जरीपिजराङधिः ॥२३॥
शोभा फैलाती हुई, दिशारूपी हाथियों के मुखपर सिन्दूरके समान दिखनेवाली, महावरके समान गुलाबी और दिशाओंके मुखोंको अलंकृत करने वाली यह प्रभात-संध्याकी कान्ति चारों ओर बड़ी तेजीसे फैल रही है ॥२३४।। हे नाथ, यह खिला हुआ काल लाल नर्यकी फैलनेवाली किरणोंसे लाल लाल हो रहा है और ऐसा मालम होता है मानो अग्निके फैलते हा फलिगोंसे व्याप्त ही हो रहा हो तथा इसी भयसे यह भूमरी उसमें प्रवेश करने के लिये समर्थ नहीं हो रही है । आचार्य कहते हैं कि जिसमें आपत्ति सदा निश्चित रहती है और जो भिवेकसे पराङमुख है ऐसी मूर्खताको धिक्कार है ॥२३५।। हे राजन् , जो उपवनके वृक्षोंको हिला रहा है, भमरोंको चंचल कर रहा है, जिसने कमलोंके तालाबमें लहरों के साथ परिचय प्राप्त किया है, जो स्त्री-पुरुषोंके संभोगकी सुगन्धिको खींच रहा है और जो कमलोंके परागसे भारी हो रहा है ऐसा यह प्रातःकालका वायु सब दिशाओंमें धीरे धीरे बह रहा है ॥२३६॥ हे राजाओंमें श्रेष्ठ, जिनमें जय जयकी घोषणा प्रकट रूपसे की गई है ऐसे जिनेन्द्र भगवान्के इन इष्ट मंगलोंसे आप फिरसे जग जाइये क्योंकि इन्हीं मंगलोंके द्वारा रणके अग्रभागम विजयलक्ष्मी रूपी स्त्रीको चाहनेवाले आपके समस्त विघ्नोंकी अच्छी तरह शान्ति होगी ।।२३७।। ___ अनेक इन्द्रोंके द्वारा जिन्हें पूजाकी ऋद्धि प्राप्त हुई है, जिन्होंने पापरूपी धूल नष्ट कर डाली है, जो वीतराग है-जिन्होंने रागद्वेष नष्ट कर दिये हैं और नमस्कार करते हुए इन्द्रों के देदीप्यमान मुकुटके रत्नोंसे मिली हुई सुन्दर किरणोंकी मंजरीले जिनके चरण कुछ कुछ पीले हो
१ असमर्थः । २ प्रवेशाय । ३ व्याप्तम् । ४ सुरतसमये दम्पत्यनुभक्तकस्तूरीकर्परादिपरिमलान् । ५ मन्दाः । ६ प्रातःकाले भव । ७ वीतरागद्वेषः । ८ इन्द्र । ६ व्याप्त ।
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